Sunday 28 October 2012

क्या करें कि ना करें....

बढ़ती महंगाई पर एक गाना मुझे अक्सर याद आता है। यह गाना है- क्या करें कि ना करें, ये कैसी मुश्किल हाय। सच ही तो है कि सुरसा की तरह मुंह फैला रही इस महंगाई में तो मुझे हर सुबह से लेकर शाम तक यही गाना याद आता रहता है। बच्चों की लंबाई बड़ रही है, लेकिन मुझे खुशी होने की बजाय महंगाई में यही चिंता सताती रहती है कि उनके सारे कपड़े छोटे होते जा रहे हैं। कैसे चलेगी ये जिंदगानी। इसी चिंता में मुझ जैसे आम आदमी का हर दिन बीतता है।
छुट्टी के दिन घर में लोग आराम फरमाते हैं, लेकिन मेरी सुबह का काफी समय बच्चों की सर्दी की स्कूल की ड्रेस आलमारी से निकालने में ही व्यतीत हो गया। बड़ा बेटा नवीं क्लास में है। उसकी लंबाई एक साल में इतनी बड़ी कि मुझसे भी लंबा हो गया। उसके घर से लेकर बाजार जाने वाले सारे कपड़े छोटे पड़ गए। छोटे पड़ने वाले इन कपड़ों में सर्दी की स्कूल ड्रेस भी शामिल थी। मैने स्कूल ड्रेस में शर्ट, कोट, स्वैटर में यह गुंजाईश तलाशी कि नीचे से खोलकर उन्हें कुछ लंबा कर दिया जाए। मेरा यह प्रयास भी विफल रहा। बेटे की लंबाई इतनी बड़ चुकी थी कि तीन ईंच तक कोई भी चीज लंबी नहीं हो सकती थी। एकसाथ उसके लिए सारे कपड़े लेने का मेरे पास बजट नहीं था। ऐसे में मैने अपनी कुछ जैकिट व शर्ट जो टाइट थी उसे पहने को दी। ताकी वह घर में तो काम चला सके। फिर पत्नी व बच्चों को लेकर चल दिया उसके लिए स्कूल के कपड़े लेने। रास्ते में ख्याल आया कि आजकल देहरादून में विरासत नाम से ट्रेड फेयर चल रहा है। बच्चों को वहां ले जाऊंगा तो वे खुश हो जाएंगे। बजट सीमित था, तय हुआ कि वहां कोई खरीददारी नहीं करेंगे। मेले से बाहर पार्किंग में मोटर साइकिल खड़ी की। पार्किंग वाले को दस का नोट दिया तो वह बोला कि नोट फटा है। मैने उसे सौ का नोट पकड़ा दिया। तभी उसने कहा कि दस का दे दो सौ के खुले नहीं है। वह बातों में मुझे उलझा रहा था। उसने रसीद तक नहीं दी। मैने रसीद मांगी तो उसने कहा कि मोटर साइकिल का पेट्रोल ऑफ कर दो। मैने पेट्रोल ऑफ किया, तो वह तब तक बच्चों को पर्ची पकड़ाकर आगे निकल चुका था। उसने मुझे सो रुपये वापस नहीं किए थे और दस रुपये भी ले गया। मुझे इसका ख्याल आया तो पार्किंग में खड़े तीन-चार युवाओं में उसे पहचानना भी मुश्किल होने लगा। सभी एक ही सूरत के नजर आ रहे थे। फिर भी मैं अंदाजे से एक युवक के पास गया और उससे सौ रुपये मांगे। पहले वह बोला मैने दे दिए। जब मैने उससे कहा कब दिए, बातों में उलझाकर तुम गायब हो गए, तब अपने हाथ में रखे नोटों के बीच मेरा सौ का नोट तलाशने लगा। उसे जो नोट मैने दिया था वह फोल्ड हो रखा था। उसे वह पहचान भी गया। यह तो गनीमत थी कि उसने वापस कर दिया और मेरा सौ का नोट जाते-जाते बचा। मेरा आधा मूड वहीं खराब होने लगा। फिर भी मैं मेले में गया। वहां घूमते ही हर स्टाल पर लालच आ रहा था। चीनी मिट्टी के सजावटी आयटम के आगे मेरा दस वर्षीय बेटा अक्सर खड़ा हो जाता और मेरी सांसे अटक जाती। मुझे यही डर सताता कि कहीं कोई वस्तु उसके धक्के से टूट न जाए। फिर कुछ खरीदो नहीं, लेकिन टूट-फूट के पैसे जरूर भरो। लकड़ी की आयटम तीन हजार से तीन लाख के बीच थी। मैं लकड़ी की सस्ती चीज तलाश रहा था, वो मिल भी गई। वो थी नींबू निचोड़ने वाली वस्तु। मुझे पता नहीं उसे क्या कहते हैं। जूस की दुकानों में दिखती है। बीस रुपये की कीमत वाली यह वस्तु मेले में सबसे सस्ती थी। जब महंगाई हमें निचोड़ रही हो, तो हम सिर्फ नींबू तो निचोड़ सकते हैं। वहां तो खाने की भी कोई आयटम बीस रुपये की नहीं थी। तभी पत्नी बेड शीट देखने लगी। फिर उसका मन रखने के लिए मुझे खरीदनी पड़ी। तभी हमें अहसास हुआ कि हम घर से निकले तो बेटे की स्कूल ड्रेस को थे। कहीं ऐसा न हो कि सारी जेब यहीं खाली हो जाए और ड्रेस लेना छूट जाए। ड्रेस तो जरूरी है। उसके बगैर बेटे को स्कूल के गेट के भीतर एंट्री तक नहीं मिलेगी। मन मसोसकर हम बाजार को चल दिए। मेले में तब तक सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हो चुके थे। संगीत की सुर लहरियों के बीच कलाकार नृत्य कर रहे थे। मंच पर बताया गया कि कार्यक्रम में भोजपुरी गायक मनोज तिवारी अपने जलवें बिखेरेंगे। इसके विपरीत मेरी आंखों के आगे कलाकार की बजाय स्कूल ड्रेस पहने बच्चे नाच रहे थे। ऐसे में मैने मेला परिसर से बाहर निकलने में ही भलाई समझी। पार्किंग में पहुंचकर मुझे यह सुखद अहसास हुआ कि आज भी मेरी मोटरसाइकिल अपनी जगह सलामत खड़ी है। नहीं तो मैं यह गाना गाने की स्थिति में भी नहीं रहता कि क्या करें कि ना करें।.......
भानु बंगवाल

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