Sunday 29 September 2013

वाइवा को छत्तीसगढ़ से दून की दौड़

दिन था रविवार। सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं और स्कूल व कॉलेज में भी छुट्टी रहती है। प्राइवेट संस्थानों में जहां रविवार को भी काम चलता है, वहां ऊंचे पदों पर बैठे लोगों की भी इस दिन ज्यादातर छुट्टी रहती है। छुट्टी के दिन ही विश्वविद्यालय ने छात्रों को वाइवा (साक्षात्कार) के लिए बुलाया। समय सुबह के दस बजे से था। पत्रकारिता से एमए कर रहे छात्र वाइवा के लिए देहरादून स्थित विश्वविद्यालय के कैंप कार्यालय पहुंच गए। वहां करीब सौ से ज्यादा छात्र थे। ओपन विश्वविद्यालय के इन छात्रों में ऐसे भी लोग ज्यादा थे, जो कहीं न कहीं नौकरी कर रहे थे। उनकी उम्र चालीस से ज्यादा थी। इनमें कई पत्रकार भी थे, जो लंबे समय से पत्रकारिता मे हाथ मांज रहे हैं। शौकिया कहो या फिर कोई और प्रायोजन, वे भी एमए के स्टूडेंट थे।
ये वाइवा भी वाकई कमाल का होता है। पता नहीं पूछने वाला क्या पूछे बैठे। परीक्षक के कक्ष में सबसे पहले जाने का कोई साहस नहीं करता। जब एकआध लोग वाइवा देकर बाहर निकलते हैं, तो उनसे अन्य लोग पूछने लगते हैं कि भीतर क्या सवाल किए गए। फिर वही सवालों के जवाब रटने लगते हैं। वाइवा के लिए एक सम्मानित पत्र के संपादक महोदय को बुलाया गया था। पत्रकार मित्र आपस में बात कर रहे थे कि क्या पूछा जाएगा। वैसे अमूमन सवाल यही पूछा जाता है कि आप पत्रकारिता से क्यों एमए कर रहे हो। एक ने कहा कि यदि मेरे से पूछा कि तो मैं जवाब दूंगा कि महोदय आपसे दो बार नौकरी मांगने गया था। आपने मुझे सलेक्ट नहीं किया। मैने सोचा कि शायद आगे पढ़ लूं तो आप मुझे अपने सम्मानित पत्र में नौकरी का आमंत्रण दोगे। आपसी ठिठोली भले ही सभी कर रहे थे, लेकिन भीतर से वाइवा का डर हरएक के चेहरे पर भी झलक रहा था। पहले दूर-दराज से पहुंचे लोगों का नंबर आया। कारण था कि उनका वाइवा पहले निपटा लिया जाए, क्योंकि उन्हें वापस भी जाना होगा। ऐसे में चमोली, टिहरी, उत्तरकाशी व पौड़ी जनपद के लोगों को पहले बुलाया गया। तभी वेटिंग रूम में जहां सभी छात्र बैठे हुए थे, वहां एक महिला काफी परेशान दिखी। उसका कहना था कि वह छत्तीसगढ़ से आई है। सभी ने उसे अन्य से पहले परीक्षक के कक्ष में जाने को कहा। इस पर उस युवती ने अपने कंधे पर बैग लटकाया। बैग देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। बैग में दो टेग लगे थे, जैसे नई चीज को खरीदते वक्त लगे होते हैं। इन टेग को हटाया नहीं गया था। उसे देख मुझे अमिताभ बच्चन की एक फिल्म का गाना याद आ गया, जिसमें अमिताभ के चश्में पर रेट का टेग लगा होता है। खैर पास से देखने पर पता चला कि टेग पर एयर इंडिया लिखा है। इस पर मुझे और आश्चर्य हुआ कि यह महिला हवाई जहाज से वाइवा देने आई। मन में तरह-तरह के विचार थे। उससे ही पूछने की इच्छा हुई, लेकिन तब तक वह परीक्षक के कक्ष में जा चुकी थी। जब वह बाहर आई और जाने लगी, तब मैने उससे सवाल किया कि भीतर क्या पूछा गया। इस पर उसने बताया कि व्यवहारिक सवाल ही पूछे गए। मैने पूछा कि उसकी ट्रेन छत्तीसगढ़ से सीधे उत्तराखंड के देहरादून में ही क्यों रुकी। क्या बीच में कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं था जहां से वह पढ़ाई कर सकती थी। उसने बताया कि उसने हरिद्वार में पत्रकारिता से बीए किया। छत्तीसगढ़ में सरकारी नौकरी लग गई। वहां एक साल में एमए की सुविधा नहीं थी। पढ़ाई के लिए उसे यही विश्वविद्यालय सुविधाजनक लगा। वाइवा की जानकारी अचानक लगी तो वह हवाई जहाज से यहां आई। कितना डर था उसे कि कहीं वाइवा न छूट जाए। इसी जल्दबाजी में वह बैग से एयर इंडिया का टेग भी नहीं हटा सकी। या हो सकता है कि उसने जानबूझकर न हटाया हो। एक पत्रकार इसलिए डरे हुए थे कि उन्होंने पहले इसी परीक्षक के अधीन काम किया था। उनसे बनती नहीं थी, तो नौकरी बदल दी थी। जब वह वाइवा निपटाकर वापस आए तो खुश दिखे।वहीं हर व्यक्ति को यह डर कि परीक्षक क्या पूछे बैठे। जिनका वाइवा निपट जाता, उनसे पूछे गए सवाल पर सभी तोते की तरह रट लगा रहे थे।
नौकरी से साथ पढ़ाई वाले काफी थे। एक वरिष्ठ पत्रकार सेवानिवृत्त होने के बावजूद भी एमए कर रहे थे। वहीं जिस समाचार पत्र के एक संपादक परक्षक थे, तो उसी पत्र के दूसरी यूनिट के संपादक भी वाइवा देने पहुंचे हुए थे। एक महाशय तो हरिद्वार में एक विभाग में उच्च पद पर तैनात हैं। उन्होंने करीब सात विषयों पर एमए किया। कई किताबें लिखी। पीएचडी भी की। अब पत्रकारिता पढ़ रहे हैं। प्रमाण के तौर पर वह एयरबैग में भरकर अपनी पुस्तकें लेकर वाइवा देने पहुंचे। यहां मुझे समझ आया कि पढ़ाई की वाकई में कोई उम्र नहीं होती। वाइवा में पांच मिनट लगने थे, लेकिन अपना नंबर आने में सभी को देरी लग रही थी। कई सुबह दस बजे से पहुंचे और नंबर दोपहर ढाई बजे भी नहीं आया। छुटी के दिन मेरे भी पांच घंटे इस वाइवा के चक्कर में बीत गए। जब नंबर आया तो मुझसे भी यही सवाल पूछा गया कि आप पत्रकारिता से एमए क्यों कर रहे हो। मैने जवाब दिया कि बीस साल से ज्यादा समय पत्रकारिता में हो गया। अब अपने ज्ञान को कागजों में लाना चाहता हूं।
भानु बंगवाल

Tuesday 24 September 2013

मानवता बिसराई....

इंजीनियर साहब जब भी दो पैग चढ़ाते थे, तो वे इसी कविता को दोहराने लगते थे। जोर की आवाज में वह बार में ही गीत के लहजे मे कविता सुनाने लगते-मानवता बिसराई। कविता का भाव यह था कि समाज का पतन हो रहा है। इंसान दूसरे की कीमत नहीं समझता। किसी के मन में अब मानवता नहीं बची। सब स्वार्थ पूर्ति के लिए एक दूसरे के करीब आते हैं। जब कभी भी वे मूढ़ में होते तो उनके परिचित कविता सुनाने को कहते और वे सुनाने लगते। वैसे इंजीनियर साहब कवि नहीं थे। कविता भी उन्होंने तब से गुनगुनानी शुरू की, जब से वे ज्यादा दुखी रहने लगे थे। एक सरकारी विभाग में अधिशासी अभियंता थे इंजीनियर साहब। पैसों की कमी नहीं थी। ऊपरी आमदानी भी खूब थी। जितना कमाते थे, उसमें से दारू में भी खूब बहाने लगे थे। उनके साथ यारों की चौकड़ी होती, जो होटल या बार में साथ रहती। जब वेटर बिल थमाता तो संगी साथी जेब में हाथ डालकर पैसे निकालने का उपक्रम करते, इससे पहले ही इंजीनियर साहब बिल अदा कर चुकते थे।
इंजीनियर साहब का स्टाइल भी कुछ अलग ही था। उनकी कमर में बेल्ट के साथ लाइसेंसी रिवालवर लटकी रहती। सिर के बाल जवानी के अमिताभ बच्चन की स्टाइल में थे, जो सफेद हो चुके थे, लेकिन वे उस पर काला रंग चढ़ा लेते थे। पतले व लंबे इंजीनियर साहब हल्के-हल्के किसी बात को कहते और कोई यदि पहली बार उनसे बात करे तो यही धारणा बनती थी कि वे मन के काफी साफ हैं। साहब के अधिनस्थ अन्य सहायक इंजीनियर व जूनियर इंजीनियर दिन भर आफिस में उनकी लीपापोती तो करते थे, साथ ही शाम को उन्हें बार में भी घेरे रहते। इंजीनियर साहब बीमार पड़े तो चेकअप कराने को सरकारी अस्पताल में गए। वहां डॉक्टर ने उन्हें देखा और कुछ दवाएं लिख दी। डॉक्टर भी दारूबाज था। वह ड्यूटी में ही दो पैग चढ़ाकर मरीज को देखता। दारू पीने वालों की दोस्ती भी जल्द हो जाती है। ऐसे में इंजीनियर साहब से उनकी दोस्ती हो गई। बार में बैठने वाली चौकड़ी में डॉक्टर साहब भी साथ ही नजर आते। डॉक्टर साहब भी कम नहीं थे। एक दिन रास्ते में उनकी कार से एक व्यक्ति टकरा गया। उक्त व्यक्ति से उनका विवाद हुआ। डॉक्टर साहब फटाफट अपनी ड्यूटी पर पहुंच गए। कार से टकराने वाला व्यक्ति भी पुलिस रिपोर्ट कराने से पहले मेडिकल के लिए सरकारी अस्पताल पहुंचा। वहां पहुंचते ही उसका माथा ठनका, क्योंकि जिस डॉक्टर ने मेडिकल रिपोर्ट बनानी थी, उसी ने उसे टक्कर मारी थी। ऐसे में वह व्यक्ति हताश होकर बगैर मेडिकल कराए ही चला गया।
इंजीनियर साहब का लीवर कमजोर पड़ने लगा, लेकिन डॉक्टर ने दवा तो दी साथ ही दारू छोड़ने की सलाह नहीं दी। उल्टी सलाह यह दी कि छोड़ो मत लिमिट में पिया करो। साथ ही पीने के दौरान खुद ही साथ बैठने लगे। इंनीनियर पहले  अपने लीवर के उपचार की दवा लेते और कुछ देर बाद दारू पीने बैठ जाते। जब इंनीनियर की आत्मा की आवाज बाहर निकलती तो तभी उनके मुंह से बोल निकलते-मानवता बिसराई।
एक बार अधिनस्थ कर्मचारियों ने घोटाले कर दिए और इंजीनियर साहब फंस गए। नौकरी से निलंबन हो गया। जब समाचार पत्रों के संवाददाताओं ने संपर्क कर उनसे जानना चाहा तो उन्होंने खुद ही बता दिया कि किस योजना में क्या घोटाला होने के आरोप उन पर लगे हैं। ऐसी ही सादगी भरा जीवन था उनका। निलंबन के बाद वह ज्यादा समय बार में ही बिताने लगे। उसी दौरान उनके मुंह से कविता भी फूटने लगी। वह दोस्तों को भले ही अपने खर्च से दारू पिलाते, लेकिन यह उन्हें बखूबी पता था कि उनके यार सिर्फ दारू के हैं।निलंबन के दौरान भी साथियों ने इंजीनियर साहब के ही पैसों से दारू पीनी नहीं छोड़ी। कोई उन्हें केस लड़ने के लिए अच्छा वकील तलाशने का सुझाव देता, तो कोई अधिकारियों पर दबाव डालने के लिए नेताओं से बात कराने का दावा करता। ऐसी सलाह बार दारू पीते ही दी जाती। इंजीनियर साहब को निलंबन में आधे वेतन से ही गुजारा करना पड़ रहा था। साथ ही दारू का खर्च भी कम नहीं हो रहा था। ऊपरी कमाई भी बंद हो गई थी। माली हालत बिगड़ रही थी, लेकिन मानवता बिसराई हुई थी।
अचानक इंजीनियर साहब ने बार में जाना बंद कर दिया। डॉक्टर मित्र घर गए तो पता चला कि उन्हें पीलिया हो गया। परीक्षण किया तो पता चला कि लीवर सिकुड़ गया है। डॉक्टर ने फुसफुसाते हुए अन्य मित्रों को बताया कि अब इंजीनियर साहब कुछ ही दिन के मेहमान हैं। उनके घरवालों को सलाह दी गई कि उन्हें कहीं बाहर दिखाया जाए। कुछ माह दिल्ली में उपचार चला और एक दिन वह चल बसे। मानवता तो सच में इंजीनियर साहब के संगी साथियों ने बिसरा दी थी। बीमार होने पर भी उन्हें दारू पीने नहीं रोकते थे। वे तो उनके नशे में होने का लाभ उठाते। वैसे तो देखा जाए आजकल हर कहीं मानवता को इंसान बिसरा रहा है। संत कहलाने वालों के कुकर्म सामने आ रहे हैं। शिक्षकों पर छात्रा से छेड़छाड़ के आरोप लग रहे हैं। भाई-भाई का दुश्मन हो रहा है। गरीब की मदद के पैसे को नेताजी उड़ा रहे हैं। हर तरफ बंदरबांट हो रही है। समाज में कौन अपना है या पराया, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो गया है। मौका मिलने पर कोई भी टांग खिंचने के पीछे नहीं रहता। ऐसे में आम आदमी तो यही कहेगा ना कि-मानवता बिसराई.......
भानु बंगवाल

Sunday 22 September 2013

अक्ल के टप्पू...

अक्ल के टप्पू, सिर पर बोझ घोड़े पर अप्पू। इस कहावत को मैं बचपन से ही पिताजी से मुख से सुनता रहा। उनका हर कर्म एक सिस्टम के अंतर्गत होता था। जब भी हम कोई गलती करते तो वह इस कहावत को कहते। इसका मतलब था कि सिर पर तो बोझ की गठरी पड़ी है और बेअक्ल घोड़े पर बैठा है। पिताजी कहानी सुनाते थे कि एक व्यक्ति की घोड़ी गर्भवती थी। वह घोड़ी की पीठ पर बैठा और अपने सिर पर उसने बड़ी गठरी लादी हुई थी। गठरी सिर पर रखने के पीछे उसका तर्क था कि घोड़ी पर ज्यादा बोझ न पड़े। वाकई अक्ल ही ऐसी चीज है जो किसी भी व्यक्ति की निजी पूंजी है। यह किसी पेड़ पर नहीं उगती और न ही इसे कहीं खरीदा जा सकता है। यह तो व्यक्ति खुद ही विकसित करता है। वैसे कहा गया कि जैसा सोचोगे, जैसा करोगे तो व्यक्ति वैसा ही हो जाता है। व्यक्ति अपने जीवन को जिस तरह ढालेगा वह वैसे ही होने लगता है। छोटी-छोटी बातों पर भी यदि हम अक्ल का सही इस्तेमाल करें तो काम सही तो होगा ही और उसे करने का आनंद भी आएगा। इन दिनों पितृ पक्ष चल रहा है और हिंदू परंपराओं के मुताबिक सभी निश्श्चित तिथि पर पूर्वजों को तर्पण के माध्यम से मोक्ष की कामना करते हैं। हम हर साल श्राद्ध में पित्रों को याद करते हैं फिर श्राद्ध निपटने पर उन्हें भूल जाते हैं। हम पितृ पक्ष को सही तरीके से समझते नहीं हैं और सिर्फ रस्म अदायगी के तौर पर पंडितजी को घर बुलाते हैं। वह तर्पण कराते हैं और हमसे संकल्प लिवाते हैं। क्षमता के मुताबिक पंडितजी को हम दक्षिणा देते हैं और वह भी अपना झोला समेट कर चले जाते हैं। बस हो गया पित्रों का श्राद्ध। हमने संकल्प लिया, लेकिन क्या संकल्प लिया यह हमें पता ही नहीं रहता। इसका कारण यह है कि हम सिर्फ परंपराओं को निभाते हैं। उसके सही मायनों को समझने का प्रयत्न नहीं करते। सभी मायनों में पितृ पक्ष में श्राद्ध करने व पित्रों को याद करने का मलतब यह है कि हम अपने पूर्वजों के आदर्शों को याद करें। उनकी अच्छाइयों को जीवन में उतारने का संकल्प लें। यही संकल्प सही मायने में पित्रों को याद करने का बेहतर तरीका है।
हमारे गांव में खेती बाड़ी के लिए सिंचाई की जमीन नहीं है। वहां लोग बारिश पर ही निर्भर रहते है। मेरे पिताजी जब भी गांव जाते तो देहरादून से आम के साथ ही फूलों की पौध ले जाते। वे पौध को खेतों के किनारे लगाते थे। आज पिताजी भले ही इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उनके हाथ से रोपित आम की पौध पेड़ बनकर आज भी फल दे रहे हैं। अक्सर मेरे पिताजी का यही कहना रहता था कि किसी का मन न दुखाओ, सदा सत्य बोलो। एक बात पर वह हमेशा जोर देते थे कि हर चीज को एक निर्धारित स्थान पर रखो। इसका फायदा भी मिलता था। जब बत्ती गुल होती, तो निश्चित स्थान पर रखी हमें मोमबत्ती व माचिस मिल जाती। उनका सिद्धांत था कि समय की कीमत समझो साथ ही अनुशासन में रहो। एक व्यक्ति ने अपने घर का सिद्धांत बनाया हुआ था कि सुबह उठते ही घर के सभी सदस्य पंद्रह से बीस मिनट तक घर की सफाई में जुट जाते। इसके बाद ही उनकी बाकी की दिनचर्या शुरू होती। इन छोटे-छोटे कामों में भी अक्ल की जरुरत पड़ती है। जैसे एक साहब बाथरूम में नहाने घुसे। पहले उन्होंने गीजर से बाल्टी में गर्म पानी डालने को नल चालू किया। फिर जब आधी बाल्टी भर गई तो ठंडा पानी चालू किया। जब बाल्टी भरी तो कपड़े उतारने लगे। अब कोई समझाए कि गर्म व ठंडा पानी एक साथ भरते और पानी भरने के दौरान ही कपड़े आदि उतारते तो समय की बचत होती। यह समय किसी का इंतजार नहीं करता। घड़ी तो लगातार चलती रहती है। समय निकलने के बाद ही व्यक्ति पछताता है। एक सज्जन ने चपरासी से सिगरेट मंगाई तो समझदार चपरासी माचिस भी लेकर आया। उसे पता था कि सिगरेट जलाने के लिए माचिस मांगेगा। ऐसे में उसे फिर से दोबारा दुकान तक जाना पड़ेगा। एक महिला सब्जी बनाने के लिए करेले को छिल रही थी। तभी दूसरी ने उसे बताया कि करेले की खुरचन को फेंके नहीं। उसे नमक के घोल के पानी में कुछ देर डुबाकर रखे। फिर खुरचन को धोकर आटे के साथ गूंद लो। बस तैयार कर लो पोष्टिक परांठे। बेटा बड़ा होकर माता-पिता को घर से निकाल रहा है, वहीं बेटी की बजाय पुत्र मोह में अक्ल के टपोरे फंस रहे हैं। उत्तराखंड में आपदा आई तो दूसरे राज्यों से भी मदद के हाथ बढ़े। अक्ल के टपोरे नेता फिजूलखर्ची रोकने की बजाय विधानसभा सत्र से पहले घर में पार्टी देकर जश्न मना रहे हैं। पार्टी में एक नेता की रिवालवर से गोली चली और दो घायल हुए, पर अक्ल के टपोरे घटना पर ही पर्दा डालने लगे। वाकई पार्टी में शामिल कांग्रेस के लोग गांधीजी के बंदर की भूमिका निभा रहे हैं। तभी तो उन्होंने बुरा, देखना, सुनना व कहना छोड़ दिया और गोली चलने पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहे हैं। अक्ल के टपोरों के तो शायद आंख, नाक, कान तक खराब रहते हैं। वहीं अक्ल की टपोरी पुलिस मौन बैठी है और नेता खामोश है। सभी को अपनी राजनीति चमकानी है। देश व प्रदेश जाए भाड़ में नेताओं को तो जनता का पैसा लूटाना है।  ऐसे में यही कहा जा सकता है कि अक्ल का जितना इस्तेमाल करो वह उतनी बढ़ती है।
भानु बंगवाल

Monday 16 September 2013

हर तरफ फैशन शो....

आजकल भई फैशन का जमाना है। इसके बगैर तो शायद ही कोई अपनी योग्यता का परिचय किसी को नहीं करा सकता। फेमस होने के लिए हो या फिर खुद को दूसरों की नजर में लाने के लिए, सभी काम में फैशन शो की जरूरत पड़ने लगी है। वैसे तो फैसन शो किसी होटल आदि में होते हैं। वहां मॉडल किसी कंपनी के उत्पाद या फिर परिधान को पहनकर रैंप में कैटवाक करती है। देखने वालों की निगाह उत्पाद पर कम और महिला मॉडल पर ज्यादा रहती है। शायद इसी को फैसन शो कहते थे। अब समय बदला और फैसन शो भी आम आदमी के इर्दगिर्द सिमट कर रह गया। फेसबुक में तो मानो इसकी बाढ़ सी आ गई। लिखने वाले तो इस सोशल साईट्स का इस्तेमाल अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने में कर रहे हैं, वहीं कई फेशन शो में भी पीछे नहीं हैं। युवतियों की नग्न तस्वीरें हर दिन अपलोड की जाने लगी। इसे लाइक करने वालों की भी कमी नहीं है। तो क्या यहीं तक सिमट कर रह गया फैसन शो। इस पर मेरा जवाब नहीं में ही है। क्योंकि अब तो कोई भी वस्तु चाहे अच्छी या बुरी क्यों न हो, लेकिन उसे परोसने के लिए फैशन शो की जरूरत ही महसूस की जाने लगी।
शीशे के सामने कोई यदि खुद को निहारता है, तो शायद उसे यही भ्रम होता है कि वह काफी खूबसूरत है। अपने भ्रम को और पुख्ता करने के लिए वह अपने रंग-रूप, पहनावे, खानपान आदि में भी ध्यान देने लगता है। भीतर से यानी स्वभाव से चाहे वह कितना कुरूप हो, लेकिन बाहर से सबसे सुंदर दिखने का प्रयत्न करता है। अब तो व्यक्ति शीशे से निकलकर कंप्यूटर, मोबाइल के जरिये इंटरनेट की दुनियां में आ गया है। फैशन शो के जरिये वह भी खुद को साबित करने की जुगत में लगा है। बच्चें हों या फिर जवान, युवक, युवती हों या फिर बूढे़। सभी इस फैशन शो का अंग बन रहे हैं।
वैसे हर कदम-कदम पर फैशन की जरूरत पड़ने लगी है। मित्र की रेडियो व टेलीविजन मरम्मत की एक दुकान थी। अब टीवी ज्यादा खराब होते नहीं हैं और रेडियो खराब होने पर लोग नया खरीद लेते हैं। मरम्मत का काम तो लगभग खत्म हो गया है। घर में रखे टीवी से ज्यादा कीमत के लोग मोबाइल इसलिए खरीदते हैं कि यह फैशन बन गया है। दुकान जब नहीं चल रही थी तो मित्र ने टीवी रिपेयरिंग की दुकान को रेडीमेड कपड़ों की दुकान में तब्दील कर दिया। कपड़ों के शोरूम में चाहे कपडों की क्वालिटी जैसी भी हो, लेकिन दुकान की सजावट का पूरा ख्याल रखा गया। इससे दूर से ही लोग दुकान की तरफ आकर्षित होने लगे। यही तो है फैशन शो। नेताजी के पिताजी ने पूरी उम्र राजनीति की। बेटे ने राजनीति की बजाय वकालत की। फिर फैशन के तौर पर वकील बेटा पिता के पदचिह्न पर चला और नेतागिरी करने लगा। उत्तराखंड में राजनीति की। कमाल का आनंद मिला इस राजनीति में। फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और बड़े पदों में काबिज हो गए। नेताजी को जब मलाई मिली तो उनके बेटे भी जनता के दुखदर्द का बीड़ा उठाने के लिए राजनीति के मैदान में उतर गए। माह में एक लाख रुपये से अधिक की सेलरी की नौकरियां छोड़ दी। अब उनसे कौन पूछे कि बगैर नौकरी के कैसे गुजारा चल रहा है। कहां से उनकी अंटी में पैसा आ रहा है। बेटों को भी आगे बढ़ने के लिए फैशन शो का ही सहारा लेना पड़ रहा है। एक बेटा तो बड़ा चुनाव हार गया, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। कूदे पड़ें हैं राजनीति के फैशन शो में कि कभी कोई न कोई शो हिट जरूर होगा। वैसे कमाई की चिंता नहीं है। बड़े-बड़े बिल्डरों को लाभ पहुंचाने में बेटों का सीधे हाथ रहता है। बड़ी योजनाओं का काम सीधा ऐसे बिल्डरों को उनके माध्यम से ही जा रहा है।
हर क्षेत्र में फैशन शो के बगैर काम चलना अब मुश्किल है। लेखक यदि किताब लिखता है तो उसका बाहरी आवरण यदि बेहतर नहीं होगा तो शायद कोई किताब को देखेगा ही नहीं। समाचार पत्रों की खबर की हेडिंग ही उसका आकर्षण है। एक नेता को अपनी लच्छेदार भाषा व पहनावे पर ध्यान देना पड़ता है। दुकान जितनी सजी होती, ग्राहक भी उतना आकर्षित होगा। क्लीनिक में डाक्टर को अपनी डिग्रियों की प्रति सजाने के साथ ही अपनी अन्य योग्यताओं के प्रमाण सजाने पड़ रहे हैं। गजब की प्रतिस्पर्धा है इस फैशन शो में। सभी आगे बढ़ने के लिए दूसरे की टांग खिंचने में लगे रहते हैं। ऐसे में जो हिट हुआ वहीं सफल मॉडल है।
भानु बंगवाल

Saturday 14 September 2013

लोगों का काम है कहना...

कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। ये गाना मैने बचपन में सुना था। तब शायद इसका सही मतलब भी नहीं जानता था। अब यही महसूस करता हूं कि हमारे सभी अच्छे व बुरे कार्यों में लोगों की प्रतिक्रिया भी जुड़ी होती है। कई बार तो इसे ध्यान में रखकर ही व्यक्ति किसी काम को अंजाम देता है। वहीं, कई बार व्यक्ति दूसरों की प्रतिक्रिया को नजरअंदाज कर देता है। फिर भी लोग तो कहते ही हैं। कई बार तो लोगों के कहने का हमारी कार्यप्रणाली में सार्थक असर भी पड़ता है। हम लोगों की प्रतिक्रिया के मुताबिक अपनी गलतियों से रूबरू होते हैं और उसमें सुधार का प्रयत्न करते हैं।
वैसे लोगों का काम तो कहना ही है। बेटी की उम्र बढ़ गई और समय पर रिश्ता नहीं हुआ। पिता को इसकी चिंता तो है ही, साथ ही यह चिंता रहती है कि लोग क्या कहेंगे। रिश्ता हुआ और यदि वर व बधु पक्ष को कोई दिक्कत नहीं, लेकिन जोड़ी में सही मेल न हो तो भी लोग तो कहेंगे। लड़की ज्यादा पढ़ीलिखी थी, लड़का कम पढ़ा है। कोई खोट रहा होगा लड़की में ऐसा ही लोग कहेंगे। वैसे देखा जाए तो दुख की घड़ी में ज्यादातर लोग दुखी व्यक्ति के पक्ष में सकारात्मक ही बोलते हैं, लेकिन सुख की घड़ी में ऐसे लोगों की कमी नहीं होती, जो कुछ न कुछ बोलने में कसर नहीं छोड़ते। बारात आई और मेहमान भी खाने में पिलते हैं। साथ ही प्रतिक्रिया भी दे जाते हैं खाना अच्छा नहीं था या फिर शादी के आयोजन की कमियां गिनाते रहते हैं।
लड़की के मामले में तो अभिभावकों को बेटी से ज्यादा दूसरों की चिंता होती है। यदि कहीं बेटी से छेड़छाड़ की घटना हो जाए, तो बेचारे लोगों की टिप्पणी के भय से इसकी शिकायत थाने तक नहीं कर पाते हैं। लोग कहीं बेटी पर ही दोष न दें। दुष्कर्म होने पर लोकलाज के भय से ही ज्यादातर लोग अपने होंठ सील लेते हैं। ऐसे मे दोषी के खिलाफ कोई कार्रवाई तक नहीं हो पाती है। लोगों की चिंता छोड़ सही राह में चलने वाले को कई बार चौतरफा विरोध झेलना पड़ता है। इसके बावजूद ऐसे सहासी लोग किसी की परवाह किए बगैर अपने कार्य को अंजाम देते हैं। तभी तो दिल्ली गैंग रैप के आरोपियों को फांसी की सजा हुई। संत कहलाने वाले आसाराम का असली चेहरा जनता के सामने उजागर हुआ और वह भी सलाखों के बीचे है। नेता हो या अभिनेता, संत हो या धन्ना सेठ। कोई कानून से बड़ा नहीं है। यदि कोई गलत करता है तो उसे सजा भी मिलनी चाहिए।
कोई भी नया काम करने से पहले उसके विरोध में खड़े होने वालों की संख्या भी कम नहीं होती। जब किसी दफ्तर में कोई नई योजना लागू होती है तो उसके शुरू होने से पहले ही कमियां गिनाने वाले भी कुछ ज्यादा हो जाते हैं। जब देश में कंप्यूटर आयो तो तब भी यही हाल रहा। इसके खिलाफ एक वर्ग आंदोलन को उतारू हो गया। तर्क दिया गया कि लोग बेरोजगार हो जाएंगे। आज कंप्यूटर हर व्यक्ति की आवश्यकता बनता जा रहा है। कोई काम करने से पहले परीणाम जाने बगैर ही अपनी राय बनाने वाले शायद यह नहीं जानते कि यदि मन लगाकर कोई काम किया जाए तो उसके नतीजे ही अच्छे ही आते हैं। 
अब रही बात यह कि क्या करें या क्या न करें। सुनो सबकी पर करो अपने मन की। यह बात ध्यान में रखते हुए ही व्यक्ति को कर्म करना चाहिए। क्योंकि अपने जीवन में सही या गलत खुद ही तय करना ज्यादा बेहतर रहता है। हर व्यक्ति को स्वतंत्रता है कि वह कुछ करे या बोले। लेकिन, इस स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं कि वह दूसरे की स्वतंत्रता में दखल दे रहा है। खुद तेज आवाज में गाने सुन रहा है और पड़ोस के लोगों को उससे परेशानी हो रही है। ऐसी स्वतंत्रता का तो विरोध भी होगा। सेवाराम जी इसलिए ही परेशान हैं। बच्चे घर में पढ़ाई करने बैठते हैं, तो पड़ोस के मंडल जी के घर में तेज आवाज में गाने बजने लगते हैं। सेवाराम जी कसमसाकर रह जाते हैं। वह यदि मंडलजी को समझाने का प्रयास करते हैं, तो भी उन पर कोई असर नहीं पड़ता। मंडलजी कहते हैं लोगों का काम कहना है। मैं तो अपने घर में गाने सुन रहा हूं। गुस्साए लोग कहते हैं कि मंडलजी को घर से बाहर घसीटकर सड़क पर उनका जुलूस निकाला जाए। मंडलजी को इसकी परवाह नहीं। बेचारे पड़ोसी दिन मे भी कमरे के खिड़की व दरबाजे बंद करने लगे हैं, ताकि मंडल के घर से आवाज न सुनाई दे और बच्चों की पढ़ाई में कोई व्यावधान ना आए। वहीं मंडलजी खुश हैं कि उनकी मनमानी के खिलाफ बोलने वाले चुप हो गए। नतीजा मंडल के घर में जितने बच्चे थे, सभी परीक्षा में फेल हो गए और पड़ोस के बच्चे अच्छे अंक लेकर नई क्लास में चले गए। परीणाम देखकर मंडलजी को  यही चिंता सताने लगी कि लोग क्या कहेंगे।
भानु बंगवाल

Monday 9 September 2013

गौरी का प्रेम

अत्याधुनिक कहलाने के बावजूद अभी भी हम जातिवाद, सांप्रदायिकता के जाल से खुद को बाहर नहीं निकाल पाते हैं। छोटी-छोटी बातों पर उपजा छोटा सा विवाद कई बार दंगे का रूप धर लेता है। व्यक्ति-व्यक्ति का दुश्मन हो जाता है। जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर, सांप्रदायिकता के नाम पर बटा व्यक्ति एक-दूसरे के खून का प्यासा हो जाता है। इसके विपरीत सभी की रगो में एक सा ही खून दौड़ता है। यदि चार व्यक्तियों के खून को अलग-अलग परखनली में डाला जाए तो उसे देखकर कोई नहीं बता सकता कि किस परखनली में किससा खून है। हिंदू का है, या मुस्लिम का, सिख का है या ईसाई का। क्योंकि खून तो बस खून है। सभी की रगों में एक समान दौड़ता है। इसमें जब फर्क नहीं है तो हम क्यों फर्क पैदा करते हैं। खून में फर्क करके ही लोग उन्माद फैलाते हैं। नजीजन किसी किसी शहर में दंगे के रूप में देखने को मिलता है। सफेदपोश इस दंगे को हवा देते हैं और अपने वोट पक्के करते हैं। पिसता तो सिर्फ गरीब इंसान ही है। उसकी स्थिति तो एक जानवर के समान है। जो अच्छे बुरे को भी नहीं पहचान सकता और जाता है बहकावे में।

बुरे इंसान की संज्ञा जानवर के रूप में दी जाती है। तो सवाल उठता है कि क्या वाकई जानवर किसी से प्रेम करना नहीं जानते। ऐसा नहीं है। एक कुत्ता भी मालिक से वफादारी निभाता है। यही नहीं एक ही घर में पल रहे कुत्ता, बिल्ली, तोता, गाय सभी एकदूसरे पर हमला नहीं करते हैं। वे एक दूसरे के साथ की आदत डाल देते हैं। कुत्ता गाय से प्यार जताता है, तो गाय भी उसे प्यार से चाटती है। मेरे एक मित्र के घर कुत्ता तोता था। जब भी पड़ोस की बिल्ली तोते की फिराक में उसके घर पहुंचती तो तोता कुत्ते से सटकर बैठ  जाता  और खुद को सुरक्षित महसूस करता। बिल्ली बेचारी म्याऊं-म्यीऊं कर वहां से खिसक लेती। कई बार तो कुत्ता गुर्राकर बिल्ली को भगा देता। जब एक घर के जानवर एक छत के नीचे प्यार से रहते हैं तो एक देश के इंसान क्यों नहीं रह सकते। क्यों हम जानवर के बदतर होते जा रहे हैं। आपस में प्यार करना सीखो। जैसे गौरी ने घर के सभी सदस्यों से किया।
गौरी मेरी एक गाय का नाम था। हम देहरादून में जिस कालोनी में रहते थे, वहां अधिकांश लोगों ने मवेशी पाले हुए थे। इससे घर में दूध भी शुद्ध मिल जाता था। साथ ही कुछ दूध बेचकर मवेशियों के पालन का खर्च भी निकल जाता था। करीब सन 82 की बात होगी। पिताजी से घर के सभी सदस्यों ने गाय खरीदने की जिद करी। सभी ने यही कहा कि हम सेवा करेंगे और दाना, भूसा समय से खिलाने के साथ ही हम गाय का पूरा ख्याल रखेंगे। गाय तलाशी गई, लेकिन अच्छी नसल की गाय तब के हिसाब से काफी महंगी थी। फिर एक करीब पांच माह की जरसी नसल की बछिया ही सस्ती नजर आई और घर में खूंटे से बांध दी गई। इस बछिया का नाम गौरी रखा गया। मैं और मुझसे बड़े भाई बहन इस बछिया को ऐसे प्यार करते थे, जैसे परिवार का ही कोई सदस्य हो। जैसा व्यवहार करो वैसा ही  जीव हो जाता है। गौरी भी सभी से घुलमिल गई। हम उसे पुचकारते थे, तो वह भी खुरदुरी जीभ से हमें चाटकर प्यार जताती थी। घर में पालतू कुक्ते जैकी से भी वह घुलमिल गई। खुला छोड़ने पर दोनों खेलते भी थे। गाढ़े भूरे रंग की गौरी इतनी तगड़ी हो गई कि दूर से वह घोड़ा नजर आती थी। पड़ोस के बच्चे भी उसे सहलाते और वह चुप रहती। गौरी बड़ी हुई पूरी गाय बनी। कई बार उसने  बछिया बछड़े जने। साथ ही घर में दूध की कमी नहीं रही।
वर्ष, 89 में पिताजी सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हुए। कालोनी से घर खाली करना था। ऐसे में हमें किराए का मकान लेना था। एक मकान तलाशा, लेकिन वहां इसकी गुंजाइश  नहीं थी कि गौरी को भी वहां ले जाया जा सके। इस पर गौरी को बेचने का निर्णय किया गया। फिलहाल गौरी को वहीं कालोनी में पुराने मकान के साथ बनी गोशाला में ही रखा गया। पुराने एक पड़ोसी को उसे समय से दाना-पानी देने की जिम्मेदारी सौंपी गई। सज्जन पड़ोसी हर दिन सुबह गौरी को दाना-पानी देते और कुछ देर के लिए खुला छोड़ देते। वहां समीप ही जंगल था। गौरी जंगल जाती और वहां से चर कर वापस गोशाला आती खूंटे के समीप खड़ी हो जाती। हर वक्त उसकी आंखों से आंसू निकलते रहते। जब कभी हम उसे देखने जाते तो उसकी आंख से लगातार आंसू गिरते रहते। हमारे वापस जाने पर वह ऐसी आवाज में चिल्लाती, जो मुझे काफी पीड़ादायक लगती।
एक दिन हमारे घर में कोई आया और गौरी को खरीद गया। उसका घर हमारे घर से करीब आठ किलोमीटर दूर था। ना चाहते हुए भी गौरी को हमें देना पड़ा। उसे रस्सी से बांधकर जब नया मालिक उसके सहयोगी ले जा रहे थे, तो गौरी अनजान व्यक्ति के साथ एक कदम भी नहीं चली। इस पर मुझे उनके साथ जाना पड़ा। मैं साथ चला तो शायद गौरी ने यही सोचा कि जहां घर के सभी सदस्य हैं, वहीं ले जा रहे होंगे। इस पर वह बगैर किसी प्रतिरोध के मेरे पीछे-पीछे चलने लगी। उसके नए मालिक के घर पहुंचने पर गौरी को वहां खूंटे से बांध दिया गया। मेरे लौटने के बाद से उसका रोने का क्रम फिर से शुरू हो गया। बताया गया कि वह कई दिनों तक आंसू बहाती रही। फिर धीरे-धीरे नए मालिक के घर के सदस्यों से घुलमिल गई। जिस दिन में गौरी को खरीदार के घर छोड़ गया था, उस दिन से मैने भी उसे नहीं देखा। इसके बावजूद गौरी का प्रेम में आज तक नहीं भूल सकता।
भानु बंगवाल   

Sunday 8 September 2013

विवाद और चोली दामन

लगता है कि इन नेताओं का विवाद से चोली दामन का साथ है। वो नेता ही क्या जो विवाद से घिरा न रहे। जितना बढ़ा विवाद उतनी ही बढ़ी नेताजी की डिग्री। तभी तो ये नेताजी भी अपना अनुभव लगातार बढ़ाने के लिए विवाद की हर नई पायदान पर पैर रखते हैं। बार-बार वे विवादों के चक्रव्यूह में फंसते हैं। इससे जो निकल गया वही सिकंदर और जो फंस गया, तो समझो उसकी उल्टी गिनती शुरू। इसके बादवजूद ऐसे  नेता हैं, जो बार-बार फंसने के बाद भी बच निकल रहे हैं। इसे उनकी किस्मत कहें या धूर्तता, लेकिन वे तो सत्ता के मद में मस्त हैं। उनका पाप का घड़ा भी भरा है, लेकिन घड़ा अनब्रेकबल है, जो फूटता ही नहीं। ऐसे नेता को क्या कहेंगे। एक मित्र को मैने फोन मिलाया और जब उनसे पूछा तो उनका जवाब था कि ऐसे नेता को बहुमुखी प्रतीभा का धनी कहा जा सकता है।
ये सच है कि नेता जितना आसान दिखता है, उतना होता नहीं। उसे तो बचपन से ही बेईमानी की पाठशाला में पाठ पढ़ना पड़ता है। तभी वह नेता बनता है। उत्तराखंड में भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं हैं, जिनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप न लगते रहे हों। जिस पर जितने आरोप लगे, अगली बार वह उतनी ही मजबूती से चुनाव जीतता गया। जिस पर आरोप नहीं रहे, वे स्वच्छ छवि के बावजूद चुनाव हार गए। ऐसे उदाहरण दो मुख्यमंत्रियों के रूप में यहां की जनता देख चुकी है। उनकी ईमानदार छवि को चुनावी खेल में जनता ने भी नकार दिया। क्योंकि जनता को भी तो बहुमुखी प्रतिभा का धनी नेता चाहिए। अकेले ईमानदारी के बल पर कोई क्या किसी का भला करेगा।
एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी नेताजी पर मैने जब शोध किया तो पता चला कि वह तो नेता बनने के लिए लड़कपन से ही विवादों के हेडमास्टर रहे और आगे बढ़ते रहे। छात्रसंघ चुनाव में मतगणना के दौरान अपने ग्रुप की हार देखते हुए उन्होंने मतपत्र में ही स्याही गिरा दी। इससे मतगणना कैसे होती और खराब हुए मतपत्रों को किसके खातें डाला जाता। यहीं से नेताजी आगे बढ़े और उन्होंने पीछे मुड़ने का नाम ही नहीं लिया। जब सरकार में मंत्री बने तो एक कुवांरी युवती के मां बनने को लेकर वह चर्चा में रहे। सीधे नेताजी पर ही युवती ने बच्चे का पिता होने का आरोप जड़ा। फिर नेताजी को मंत्री पद गंवाना पड़ा। कौन सच्चा और कौन झूठा था, इस सच्चाई का सही तरीके से उजागर तो नहीं हुआ,लेकिन नेताजी इस विवाद से भी बच गए। न ही उनकी छवि को इसका कोई नुकसान हुआ। वह दोबारा चुनाव जीते और वह भी भारी मतों से।
सरकार में रहते हुए इनके चर्चे बार-बार उजागर होते रहे। कभी मिट्टी तेल की ब्लैकमैलिंग पर रोक का प्रयास करने वाले अधिकारी से अभद्रता, तो कभी पटवारी भर्ती घोटाला, तो कभी जमीनों का विवादित प्रकरण। ऐसे मामलों को भी नेताजी बड़ी सफाई से हजम कर गए। अक्सर महिलाओं के साथ इनका नाम जुड़ता रहा। इन्होंने तो एक बार ऋषिकेश में वेलेंटाइन डे पर बड़ी सफाई से एक कार्यक्रम आयोजित कर दिया, जिसमें महिलाएं उन्हें फूल भेंट करने को पहुंची। यही नहीं उत्तराखंड में आपदा आई और एक बार नेताजी ने राहत सामग्री ले जा रहे हेलीकाप्टर से सामान उतार दिया और उसमें खुद बैठ गए। साथ ले गए कुछ साथियों के साथ एक महिला को और मौसम खराब होने पर फंसे रहे तीन दिन तक केदारनाथ में। खराब मौसम के चलते तब नेताजी को वहां जान के लाले तक पड़ गए।
नेताजी के चेले भी उनका नाम लेकर आगे बढ़ने की शिक्षा ले रहे थे। ऐसे ही बेचारे एक चेले की हत्या हो गई। हत्या के आरोप में एक महिला को पकड़ा गया। वह भी खुद को नेताजी की चेली बनाने लगी, साथ ही यह भी दावा किया जाने लगा कि चेली को नेताजी के घर से पकड़ा गया। हालांकि पुलिस ने इस मामले में सफाई से पर्दा डाल दिया। वहीं नेताजी ने भी चेली से किसी संबंध से इंकार किया। फिर पता चला कि आपदा प्रभावितों के लिए बाहर से किसी संस्था से भेजी गई राहत सामग्री को नेताजी के होटल से वहां के लोगों को बांटा जा रहा है, जहां आपदा आई ही नहीं। सिर्फ वोट पक्के करने के लिए लोगों को खुश किया जा रहा था। सच ही तो है कि ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी नेताओं को ही जनता भी पसंद करने लगी है। यदि कोई फंस गया तो वह किस बात का नेता कहलाएगा। क्योंकि नेताजी जानते हैं कि नेताओं पर तो आरोप लगते रहते हैं। विपक्षियों का तो यही काम है। जितना विवाद बढ़ेगा वह उतने ही मजबूत होंगे। यही मूलमंत्र शायद उन्होंने नेता बनने की पाठशाला में सीखा है।
भानु बंगवाल