Sunday 19 January 2014

समय से हारा गणित

कहते हैं कि समय के अनुरूप योजना बनाकर काम करना ही बेहतर होता है। हर काम का समय फिक्स कर लो। ज्यादातर मैं भी इसी युक्ति पर ही काम करता हूं। पर कई बार युक्ति फेल हो जाती है। फिर भी समय की चाल बलवान है। इसका पहिया तो चलता रहता है। हमें तो उस सेतालमेल बैठाना पड़ता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। जब समय के अनुरूप काम करने का मेरा गणित समय की चाल से हार गया। 
सर्दी पड़ी बच्चों की छुट्टी भी पड़ी। समय के मुताबिक मुझे ये समय रंग-रोगन के लिए उपयुक्त लगा। ये रंग रोगन भी बड़े काम की चीज है। जिस पर लगाया जाए, उसकी सूरत ही बदल जाती है। दीवारों पर लगे तो दीवार चमक उठती है। क्रीम, पाउडर फेशियल के रूप में चेहरे पर लगाने से दूर से व्यक्ति भी चमकता हुआ दिखाई देता है। हालांकि सुंदरता बाहर की नहीं, बल्कि भीतर की ही अच्छी होती है। फिर भी व्यक्ति खुद के साथ ही अपने घर को संवारने के लिए हर संभव प्रयास करता है। घर को संवारना भी कोई आसान काम नहीं है। हर चार-पांच साल में दीवारें रंग छोड़ने लगती हैं। दीवारों का पलस्तर उखड़ने लगता है। फिर पहले दीवारों की मरम्मत होती है, तब जाकर उसमें रंग-रोगन चढ़ाया जाता है। घर चमक जाता है। इस बहाने घर की सफाई हो जाती है, लेकिन सामान इधर से उधर सरकाने में फजीहत भी कुछ ज्यादा ही हो जाती है।
सर्दियों में बच्चों के साथ ही पत्नी के स्कूल की छुट्टियां पड़ी तो मुझे भी यही समय घर में रंगाई-पुताई कराने में सबसे उपयुक्त लगा। पुताई करने वाला आया और उसने एक सप्ताह में काम पूरा करने का वादा किया। एक सप्ताह फजीहत होनी थी। खैर मानसिक रूप से सभी तैयार थे। काम शुरू हुआ। जैसै-जैसे काम होता जाता, वैसे-वैसे ही और बढ़ता जाता। दस दिन बीते, लेकिन घर के भीतर से ही पुताई वाले बाहर नहीं निकले। वे तो दुश्मन जैसे नजर आने लगे। हर सांस में रंग रोगन की महक भीतर फेफड़ों में घुस रही थी। घर के सभी सदस्यों को परमानेंट जुखाम सा महसूस होने लगा। जो भी घर आता, वही हमें सीख देने से भी बाज नहीं आता। नसीहत दी जाती कि सर्दियों में क्यों काम छेड़ा, गर्मियों में छेड़ते। अब उन्हें कौन समझाए कि गर्मियों में बच्चों की छुट्टी पड़ती है और वे कहीं बाहर जाने की योजना बनाते हैं। ये ही वक्त हमें ज्यादा सहूलियत का लग रहा था, सो पंगा ले लिया। एक दिन लगा कि अब दो दिन का ही काम है। अगले दिन बारिश हो गई। उस दिन काम ही नहीं हुआ। फिर मसूरी के साथ ही आसपास की पहाड़ियों में जमकर बर्फ गिरी। मेरा मन भी हुआ कि बच्चों के साथ देहरादून से धनोल्टी जाकर बर्फ का आनंद उठाया जाए, लेकिन पुताई से पीछा ही नहीं छूट रहा था।
रविवार को सुबह से ही धूप खिली हुई थी। मैं समय के अनरूप ही काम को निपटाने का प्रयास करने में जुट गया। घर में कुछ बल्ब व ट्यूब जल नहीं रहे थे। ऐसे में मैने बिजली के काम के लिए इलेक्ट्रीशियन बुलाया। वह भी अपना काम कर रहा था और मैं उसकी मदद। मैने बच्चों से कहा कि बिजली का काम निपटने के बाद सभी मसूरी की तरफ चलेंगे। बच्चों में भी इस पर खासा उत्साह था। एक ट्यूब को बदलने के बाद मैं एक टेबल को पत्नी की मदद से उठाकर उसकी निर्धारित जगह में रखना चाह रहा था। तभी टेबल एक्वेरियम से टकरा गई। चट की आवाज के साथ ही उसका शीशा चटख गया। उससे पानी लीक होने लगा। आनन फानन मछलियों को पानी की बाल्टी में डाला गया। एक्वेरियम को खाली किया गया। चटखे कांच को जोड़ने के लिए आरेल्डाइट लाया। अब मेरे काम की प्राथमिकता मसूरी नहीं थी, बल्कि मछलियों का घर ठीक करना था। एक्वेरियम रिपेयर किया गया। इस काम में मुझे कई घंटे लग गए। देर शाम तक भी वह नहीं सूख पाया। मछिलिंया बेघर रही। ठीक उसी तरह जैसे हम कमरों की पुताई के दौरान पहले बेघर हो रहे थे। कभी विस्तर किसी कमरे में लगता तो अगले दिन दूसरे में। किसी दिन कीचन में काम नहीं हुआ और होटल से खाना आया। ठीक उसी तरह मेरी मछलियां भी एक दिन से लिए एक्वेरियम से बाहर हो गई। साथ ही बच्चों का छुट्टी के दिन मसूरी जाना भी केंसिल हो गया। क्योंकि समय काफी निकल चुका था। इस दिन बच्चों के साथ ही मछलियां दोनों ही शायद मुझे कोसते रहे होंगे। फिर भी मुझे संतोष रहा कि मैने सभी मछलियों का जीवन बचा लिया।
 भानु बंगवाल   

Sunday 5 January 2014

यूं ही आ गए....

एक दिन दोपहर में खाना खाने के बाद मैं एक घंटे की नींद लेने की तैयारी कर रहा था, कि तभी गेट को खड़खड़ाने की आवाज सुनाई दी। सचमुच मुझे नींद प्यारी है। सोने के दौरान मैं किसी भी प्रकार का खलल नहीं चाहता। ये बात मेरे बच्चे भी जानते हैं। ऐसे में जब वे मुझे सोता पाते हैं तो वे भी दबी जुबां से फुसफुसाहट में बात करते हैं। गेट के बजने की आवाज पर मैने सोचा कि बिजली के बिल के लिए मीटर रीडर आया होगा। क्योंकि टेलीफोन, मोबाइल, पानी के बिल आ चुके थे और मैं समय से भुगतान भी कर चुका था। पत्नी गेट पर गई और नमस्ते, हालचाल पूछने की आवाजें करीब आती चली गई। मैं बोखलाकर बिस्तर से उठा और बाहर को निकला। देखा सामने करीब 65 साल से अधिक उम्र का एक व्यक्ति व करीब तीस साल का एक युवक खड़े हैं। मैने अंदाजा लगाया कि वे बाप-बेटे हैं। खैर आगंतुक ने ही मुझसे पूछा कि तुम्हारा नाम भानु है। मुझे पहचाने नहीं, कहां से पहचानोगे। मैं काफी साल बाद आया हूं। तुम्हारे पिताजी से मिलने मैं आता रहता था। वे भी हमारे घर खूब आते थे। मुझे आज याद आई तो मैं आप लोगों से मिलने चला आया।
बैठक में बैठने के बाद बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। पहले मैने उनकी पहचान पूछी। पता चला कि वे हमारे दूर के रिश्तेदार हैं, जिन्हें मैने शायद पहले कभी नहीं देखा, या फिर देखा होगा तो मुझे याद नहीं। मेरी एक चाचीजी के वो भाई लगते थे। ऐसे में वे मेरे मामा हुआ और उनका बेटा मेरा भाई। इधर-उधर की बातचीत हो रही थी और मैं इसी उधेड़बुन में लगा था कि वे हमारे यहां किस काम से आए हैं। क्योंकि आजकल किसी के पास इतना टाइम नहीं कि वो किसी से यूं ही मिलने चला आए वो भी इतने सालों के बाद जब उसे कोई पहचानता नहीं हो। अक्सर जब भी कोई घर आता है तो वह घूमफिर किसी मकसद को उजागर कर देता है, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। मैने मामाजी से पूछा कि वह पहले कहां थे। उन्होंने बताया कि नौकरी के दौरान वे अक्सर बाहर रहे, अब रिटायर्ड हो गए हैं और देहरादून में ही मकान बनाकर रह रहे हैं।
मेरे घर में ना तो शादी की उम्र की कोई लड़की है और न ही लड़का। फिर ये सज्जन क्यों आए यही विचार मेरे मन में उठ रहे थे। फिर लगा कि ये अपने बेटे को कहीं नौकरी दिलाने की बात छेड़ेंगे। उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं की तो मैने ही चाय की चुस्कियों के दौरान उनके बेटे दीपक से सवाल किया कि तुम क्या करते हो। वह बोला पहले मैं देहरादून में किसी स्कूल में पढ़ाता था। फिर पिताजी के साथ पंजाब चला गया। वहां भी स्कूल में पढ़ाया। जब वापस लौटा तो पुराने स्कूल में उसके समय के सभी अस्थाई टीचर स्थाई हो गए। नौकरी तो लगी नहीं, लेकिन अब प्रापर्टी डीलिंग का काम कर रहा हूं। वह ठीकठाक चल  रहा है। मामाजी भी मुझसे कभी पत्रकारों के जीवन के बारे में, उनके कामकाज आदि के बारे में पूछते। मुझे लगा कि शायद इन्हें बेटी का रिश्ता किसी पत्रकार से तो नहीं कराना है। ऐसे में पत्रकारों के बारे में पूछकर मुझे टोह रहे हों। मैने भी पत्रकारों की मौजी लाइफ की जगह वे सच्चाई बताई, जिसे सुनकर कोई भी पत्रकार बनने का साहस नहीं कर सके। हर समय टेंशन, खाना खाना भूल आजो, नौकरी का भरोसा नहीं, रात को यह पता नहीं कि कितने बजे बिस्तर नसीब हो, जितना करो वह कम है, छोटी सी चूक हो गई तो वर्षों की मेहनत से जो इमैज तैयार की उस पर बट्टा लगना तय है।
फिर मेरे मन में वही सवाल उठ रहा था कि क्या बाप-बेटे यूं ही मिलने चले आए। पिताजी को ही मामाजी जानते थे। पिताजी की मौत वर्ष 2000 में हो गई थी। तब से 14 साल हो गए। हां मेरे पिताजी काफी मिलनसार थे। वे जब नौकरी में थे तो छुट्टी के दो दिन अक्सर किसी न किसी के घर जरूर जाते थे। तब पलटकर लोग भी हमारे घर आते थे। जब वह रिटायर्ड हुए तो यह सिलसिला तब तक जारी रहा,जब तक वह चलने-फिरने में समर्थ रहे। उनकी मौत के बाद यूं ही मिलने को घर आने वाले भी गायब हो गए। अब तो जो भी आता है वह किसी न किसी काम के ही आता है। हां यूं ही मिलने वाले वे तो जरूर आते हैं, जो पहले से ही नियमित आ रहे हैं। जैसे मेरी बहने, जीजा, मांजा या ससुराल पक्ष के वे लोग जिनसे हम फोन से भी संपर्क में रहते हैं। अब मुझे लगा कि शायद ये मामाजी यह कहेंगे कि बेटा यदि कोई जमीन बेचेगा या खरीदेगा तो हमें ही बताना, लेकिन उन्होंने ऐसा भी नहीं किया। किसी का समाचार या विज्ञापन छपवाने को भी नहीं कहा। क्योंकि अक्सर मेरे घर आने वाले घूमफिर कर बात करने के बाद कुछ  न कुछ ऐसा काम बताते हैं, जो कहीं सिफारिश   करने वाला होता है। ऐसों को मैं भी एक कान से सुनकर टाल देता हूं। हां यदि किसी की बात जायज होती है तो यह सलाह जरूर देता हूं कि उन्हें क्या करना चाहिए। वैसे मैं नियमों से चलने मैं ही विश्वास करता हूं और दूसरा मुझे शायद मूर्ख समझता है। वैसे तो आजकल सामने वाला दूसरे को मूर्ख ही समझता है। बॉस कर्मचारी को मूर्ख मानता है और कर्मचारी बॉस को। एक पत्रकार दूसरे को हमेशा मूर्ख  ही बताता है। वह दूसरे की खूबियां कभी सहन नहीं करता। वह सोचता है कि सबकुछ जैसे वही जानता है। कुछ देर बाद यह कहकर दोनों उठे कि अच्छा चलते हैं, हमारे घर भी आना। हां घर की लोकेशन उन्होंने जरूर बताई। मैने दीपक को अपना मोबाइल नंबर दिया। फिर वे चले गए।
उनके जाने के बाद मैं फिर यही सोचने लगा कि आखिर वे दोनों क्यों आए। खैर वे चले गए और मुझे उनका आना अच्छा लगा। मैं दोबारा बिस्तर में लेटा कि फिर गेट बजा। अबकी बार गांव का एक परिचित आया। जो किसी के बेटे की शादी का कार्ड देने के लिए आया था। वह घर भी बैठा नहीं अभिवादन के बाद कार्ड थमाकर चलता बना। चाय की काफी जिद करने के बाद भी वह रुका नहीं। क्योंकि यूं हीं आने के लिए शायद उनके पास टाइम नहीं था और इन महाशय के जाने के बाद मेरे पास भी सोने का टाइम नहीं बचा।
भानु बंगवाल