Saturday 22 February 2014

मदद की लिफ्ट..

कभी-कभी मेरा भी मन करता है कि दूसरों की मदद को हमेशा उसी तरह तत्पर रहूं, जैसे मैं लड़कपन में रहता था। तब मोहल्ले में किसी को भी कोई छोटा-बड़ा काम पड़ता तो मेरे पास चला आता। मैं किसी का काम करने से मना नहीं करता। चाहे बाजार से सामान लाना हो या फिर बिजली या पानी का बिल जमा करने के लिए लंबी लाइन में खड़ा होना हो। अब ये मेरे से नहीं होता। सच पूछो तो अब मेरे पास दूसरों की मदद के लिए समय तक नहीं बचा है। आर्थिक रूप से मजबूत नहीं हूं। ऐसे में मैं किसी की क्या मदद कर सकता हूं। कहते हैं कि दूसरे की मदद कर हम किसी पर अहसान नहीं करते हैं। जब हम किसी की मदद करते हैं तो उसके बाद हमारे भीतर सच्चे आनंद की अनुभूति होती है। यह आनंद हमें जिस व्यक्ति की मदद से मिलता है, सच मायने में वह मदद का मौका देकर हम पर ही अहसान करता है।
अब मदद के लिए समय न होने के बावजूद भी मैं यही सोचता हूं कि जब भी मौका मिले, तो खुद को कृतज्ञ करने से पीछे न रहूं। राह चलते जरूरतमंद को वाहन में लिफ्ट देना भी मुझे अच्छा लगता है, लेकिन कई बार मेरी यह दरियादिली ही मुसीबत का कारण बनने लगती है। एक रात सड़क पर मैने एक व्यक्ति को लिफ्ट दी तो मोटरसाइकिल पर बैठते ही वह कभी इधर तो कभी उधर को लुढ़कने लगा। तब मुझे पता चला कि महाशय नशे में हैं। उसे बैठाकर मैं खुद ही डरने लगा कि कहीं वह गिर गया तो मेरी मुसीबत बढ़ जाएगी। फिर भी किसी तरह मैं उसका घर का पता पूछकर उसे घर तक छोड़ने गया। उसके घर पहुंचते ही इस अनजान महाशय की पत्नी मुझपर ही बिगड़ गई और गालियां देने लगी। वह मुझे महाशय का दोस्त समझ बैठी और पति को शराब पिलाने वाला मुझे ही समझने लगी। उस दिन मैने संकल्प लिया कि कभी शराबी व्यक्ति की मदद नहीं करूंगा।
यह संकल्प मेरा ज्यादा दिन नहीं चला। एक रात आफिस से घर जाते समय मुझे एक परिचित मिला। जो सड़क किनारे स्कूटर पर किक मार रहा था। स्कूटर सीधा तक खड़ा नहीं हो रहा था। ऐसे में किक ठीक से नहीं लग रही थी और स्कूटर स्टार्ट नहीं हो रहा था। मैं इस परिचित फोटोग्राफर की मदद को रुक गया। मैने स्कूटर स्टार्ट कर दिया। साथ ही यह भी देखा कि परिचित काफी नशे में है। मैने उसे समझाया कि आराम से जाना, लेकिन उसने बात नहीं मानी। करीब पांच सौ मीटर आगे जाने के बाद वह एक ठेली से टकरा गया। मौके पर मौजूद लोगों ने उसे घेर लिया। किसी तरह उसे लोगों से छुड़ाया। फिर उसका स्कूटर एक व्यक्ति के घर के आगे खड़ा कराया। इस परिचित को काफी चोट लग चुकी थी। उसे मरहम पट्टी की जरूरत थी। मैं उसे देहरादून के दून अस्पताल ले गया। उसकी मरहम पट्टी कराई। फिर उसे घर छोडने के बाद देर रात अपने घर पहुंचा। इस घटना के कुछ दिन बाद एक महिला मेरे घर पहुंची। वह उस फोटोग्राफर की पत्नी थी। महिला मुझसे लड़ने लगी कि उसके पति को मैने शराब पिलाई व उसका स्कूटर छीन लिया। उसके फोटोग्राफर पति को यह याद नहीं रहा कि उसका स्कूटर कहां है, लेकिन यह जरूर याद रहा कि मैं उसे घर तक छोड़ कर आया था। तब मैने महिला को सारी बात बताई। साथ ही यह भी बताया कि उसके पति का स्कूटर कहां सुरक्षित रखा हुआ है।
 ऐसी मदद के बाद से मुझे सच्चे आनंद की अनुभूति के बजाय कष्ट ज्यादा हुआ। इसके बावजूद मदद का कीड़ा मेरे भीतर से कम नहीं हुआ। गर्मी की एक रात मैं देहरादून के घंटाघर से राजपुर रोड को होकर अपने घर को लौट रहा था। तभी मुझे सड़क पर करीब बीस वर्षीय एक युवक पैदल चलता नजर आया। उसके कंधे में भारी-भरकम बैग था। मैने उससे पूछा कि वह कहां जाएगा। उसने बताया कि सालावाला। यह स्थान मेरे रास्ते पर ही पड़ता था। रास्ते में मधुबन होटल तक लिफ्ट देने पर युवक को कुछ दूर ही पैदल जाना पड़ता। युवक दिल्ली में नौकरी करता था। छुट्टी में वह घर आ रहा था। मैने उसे लिफ्ट देनी चाही, लेकिन उसने मोटरसाइकिल में बैठने से साफ मना कर दिया। मेरी और से ज्यादा अनुग्रह करने पर तो वह चिढ़ गया। कहने लगा आप अपना रास्ता नापो मैं खुद ही घर चला जाऊंगा। मुझे उसके इस जवाब पर कोई ताजुब्ब नहीं हुआ। क्योंकि अनजान व्यक्ति से लिफ्ट लेना उसे सुरक्षित नहीं लग रहा था। कौन जाने किस वेश में लुटेरा लिफ्ट देकर उसे सुनसान जगह पर लूट कर चलता बने।
भानु बंगवाल
      

Tuesday 18 February 2014

ओला, सर्दी और चाय

दूनघाटी का मौसम भी कमाल का है। कभी बारिश होने लगती है, तो कभी आसमान साफ नजर आने लगता है। हल्का मौसम खराब हुआ, पहाड़ों में बर्फ पडी़ और ठंड बढ़ने लगती है देहरादून में। सर्दी का असर व्यक्ति को तो पड़ता ही है, साथ ही इस मशीनी युग में मशीनों पर भी दिखाई दे रहा है। बात कुछ अटपटी है, लेकिन मेरा कंप्यूटर तो यही कह रहा है। पिछले शनिवार को देहरादून में ओले क्या गिरे, इस कंप्यूटर ने काम करना बंद कर दिया। आदमी हो तो ठंड दूर करने का इलाज किया जाए, लेकिन कंप्यूटर का क्या इलाज करेंगे। कंप्यूटर से नेट गायब। बीएसएनएल य़ानी भाई साहब नहीं लगे,,में शिकायत की तो वहां से तर्क दिया गया कि ओले गिरने से ज्यादातर लोगों के मॉडम फूंक गए। भाई मेरा कंप्यूटर तो बंद था, फिर इसे सर्दी कैसे लग सकती है। लगातार जांच होती रही। फिर जाकर पता चला कि एक्सचेंज का ही फाल्ट है। जो चौथे दिन मंगलवार को ही ठीक हो पाया।
कंप्यूटर से ज्यादा बुरा हाल मेरा था। ठीक-ठाक कपड़े भी पहन रहा था। बारिश में बरसाती का भी इस्तेमाल कर रहा था। जब औले गिरे में ऑफिस में था, जहां एसी की गरमाहट थी। ठंड लगने का सवाल ही नहीं था। शनिवार की रात घर पहुंचा तो देखा आंगन में बच्चों ने ओले एकत्र कर बर्फ का स्नोमैन बनाया हुआ था। बच्चों ने बताया कि पूरा आंगन ओलों से भर गया था। तब उन्होंने यह स्नोमैन बनाया। मुझे बच्चों के इस खेल पर गुस्सा आने लगा। खासकर छोटे बेटे पर, जो कुछ दिन पहले खांसी, जुकाम व बुखार से पीड़ित था। रात को खौं-खौं कर सोने नहीं दे रहा था। उसे मैने समझाया कि बार-बार दवा लाने से घर का बजट बिगड़ रहा है। उसे ऐसे खेल की क्या जरूरत थी। खैर पत्नी ने समझाया कि अब बच्चों ने खेल कर दिया तो उसके बाद बिगड़ने की क्या आवश्यकता है। मैने कहा कि आगे के लिए वे नसीहत लेंगे। कुछ ही दिनों से उनकी परीक्षा शुरू हो जाएंगी। ऐसे में बीमार होने से बचना चाहिए।
बच्चे फिर से बीमार न हो जाएं यह चिंता मुझे सता रही थी। तभी मैं भी ठंड से कांपने लगा। रात्रि का भोजन लेने के बाद भी कंपकपी दूर नहीं हुई तो पत्नी ने कहा कि कड़क चाय बना दूं। सब ठीक हो जाएगा। क्या सर्दी का इलाज चाय है। मैं यही सोच रहा था। शराब पीने वाला दो पैग से सर्दी दूर भगाता है। उसका तर्क होता है दो पैग मारो सभी बीमारी दूर। पीने वाला पैग भी मारता है, लेकिन अगले दिन तबीयत और ज्यादा खराब नजर आती है। अन्य लोग चाय से सर्दी दूर करने का उपाय खोजते हैं। वाकई ये चाय भी क्या चीज है। इसका देहरादून व गढ़वाल के लोगों से बहुत पुराना नाता नहीं है। आजादी से कुछ साल पहले ही शायद यहां के लोगों ने चाय का स्वाद चखा था। अब इसके बगैर न तो किसी की सुबह होती है और न ही रात।
वैसे करीब 1830 में अंग्रेजों ने देहरादून में चाय की खेती शुरू की थी। चाय की खेती के लिए ईस्ट होप टाउन, आरकेडिया टी स्टेट, व हरबंशवाला के साथ ही विकासनगर में चाय के बगीचे लगाए गए। दूनघाटी में जिस चाय का उत्पादन होता था वह ग्रीन-टी के नाम से मशहूर थी। निकोटीन रहित इस चाय की मांग भारत के अमृतसर जिले में अधिक थी। नीदरलैंड,जर्मनी, इंग्लैंड,रसिया के साथ ही यूरोप के कई देशों में इसकी मांग थी। इसका उपयोग दवा बनाने में भी किया जाता था। इसकी मांग के अनुरूप निर्यात नहीं हो पाता था। 1997 में अमेरिका ने देहरादून के बगीचों से उत्पन्न चाय की गुणवत्ता को देखकर इसे आरगेनिक टी घोषित किया था। अलग प्रदेश उत्तराखंड बना तो यहां खेती की जमीन की जगह कंकरीट के जंगल नजर आने लगे। साथ ही चाय के बगान उजाड़ होने लगे। चाय बगान सिकुड़ रहे हैं और उनकी जगह भवनों ने ले ली।
भले ही देहरादून में चाय की खेती पहले से हो रही थी, लेकिन आमजन चाय का टेस्ट तक नहीं जानता था। आमजन को भी चाय की चुस्की का चस्का अंग्रेजों ने ही लगाया। मेरे पिताजी बताते थे कि 1940 के दौरान अंग्रेजों ने लोगों में चाय का चस्का डालने की शुरूआत की। इसके लिए पल्टन बाजार में चाय का स्टाल लगाया गया। इस स्टाल में चाय बनाकर फ्री में रहागीरों को पिलाई जाने लगी। कुछ दिन बाद मेरा फ्री की बजाय चाय की कीमत वसूली जाने लगी। साथ ही चाय पीने वाले को एक पुड़िया में चाय पत्ती भी दी जाती। ताकि वह घर में चाय बनाकर पी सके। चाय का जादू ऐसा चला कि लोग इसके आदि हो गए। दूर-दराज के पर्वतीय क्षेत्र में जहां मोटर तक नहीं पहुंच सकी, वहां घरों में चाय पत्ती पहुंच गई और केतली में हर सुबह चाय उबलने लगी। पहाड़ों में तो चाय ने कलयुगी अमृत के रूप में अपनी जगह बना ली।
करीब बाइस साल पहले वर्ष 1992 में चकराता रोड निवासी एक बुजुर्ग ने मुझे चाय की कहानी कुछ इस तरह सुनाई। उन्होंने बताया कि जब वह छोटे थे तो उस समय चाय सिर्फ पैसे वालों के घर में ही बनती थी। चाय को मजे के लिए नहीं, बल्कि दवा के रूप में पिया जाता था। उन्होंने बताया कि जब वह आठ साल के थे, तो उनके पड़ोस में कभी-कभार चाय बना करती थी। उसकी खुश्बू से ही लोग अंदाजा लगाते थे कि पड़ोस की आंटी चाय बना रही है। उन्होंने बताया कि सर्दी के दिन थे, मैने आंटी से कहा कि चाय पिला दो। इस पर आंटी उन्हें कमरे में ले गई। बिस्तर पर बैठाकर उनके पूरे शरीर में कंबल लपेट दिया। इस दौरान स्टोव में चाय चढ़ा दी गई। फिर गर्मागरम चाय परोसी गई। जो कंबल में लपेटे ही उन्हें पिलाई गई। चाय पीते ही सारी सर्दी भाग गई।
तब और अब। इन साठ-सत्तर साल के अंतराल में चाय के माइने ही बदल गए। चाय में वह गर्मी नहीं रही। मैने भी सर्दी लगने पर जो चाय पी। उसने भी असर नहीं दिखाया। शायद मिलावटखोरी ने चाय की ताकत भी खत्म कर दी। तभी तो पिछले चार दिन से सुबह-दोपहर व शाम को चाय के साथ ही सर्दी-जुकाम,बखार की दवा खा रहा हूं, लेकिन तबीयत ठीक होने का नाम तक नहीं ले रही है। ओले पड़े और कुछ ही घंटों में पिघल गए, लेकिन शरीर में सर्दी ने जो प्रवेश किया, वह तो वहीं जम कर बैठ गई। इसका चाय इलाज चाय की चुस्की में भी नजर नहीं आ रहा है। फिर भी चाय का महत्व कम नहीं हुआ। कई बार चाय के बहाने बड़े-बड़े समझोते तक हो जाते हैं। चाय की महत्ता को पहचानते हुए नरेंद्र मोदी के माध्यम से भाजपा ने तो चाय चौपाल का अभियान ही छेड़ दिया है। चाय सियासी दावपेंच का आधार बन रही है। अब देखना है कि इस मामले में चाय अपनी कितनी गर्मी दिखाती है।
भानु बंगवाल

Sunday 9 February 2014

हम भी खुश, तुम भी...

इस रंग बदलती दुनियां में जिस आदमी का रंग सबसे ज्यादा बार-बार बदलता रहता है। वह नेता होता है। नेता ही ऐसी कौम है, जिसे सत्ता पर रहने पर भी काम है और विपक्ष में रहने के दौरान भी। हां फर्क बस इतना है कि सत्ता में रहने के दौरान वह सरकार का गुणगान करता है, वहीं, विपक्ष में रहने के दौरान वह सरकारी की खिंचाई करता है। नेताजी के साथ ही उनके चेले भी इसी काम में जुटे रहते हैं। वैसे चेलों का भी कोई दीन ईमान नहीं रह गया। वे भी समय और मौके की नजाकत देखकर रंग बदलते रहते हैं। उनके रंग बदलने के साथ ही नेता भी बदल जाते हैं। आज इसका दामन थामा है तो कल मौका देखकर दूसरे का थामने में वे तनिक गुरेज तक नहीं करते हैं। नेताजी सत्ता में अच्छे पद पर बैठे तो चेले भी रोजगार में जुट जाते हैं। किसी न किसी बहाने उनका रोजगार चल पड़ता है। पहले वे अपना भला करते हैं, फिर वे अपनी पहचान वालों का नंबर लगाते हैं। यही परंपरा तो हर राज्य में चल रही है। इससे उत्तराखंड भी अछूता नहीं है।
उत्तराखंड में बार-बार मुख्यमंत्री बदलने को भले ही कोई राज्य के विकास में रोड़ा अटकना बताए, लेकिन इस परिपाटी ने ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम से जोड़ दिया है। जो खाली बैठकर एक-दूसरे को कोसते रहते थे, वे अब व्यस्त हो गए हैं। यानी उन्हें रोजगार मिल गया है। कुछ करने का मौका, अपनी जेब भरने का मौका, या फिर दूसरों का भी कुछ न कुछ भला करने का मौका। इसे कुछ इस तरह समझा जा सकता है। पहले भाजपा के कार्यकाल में भुवन चंद्र खंडूड़ी मुख्यमंत्री बने तो उनसे जुड़े कार्यकर्ता बिजी हो गए। फिर निशंक मुख्यमंत्री बने तो उनके गुट के कार्यकर्ताओं को भी किसी न किसी काम के बहाने रोजगार मिला। कई कार्यकर्ता तो बड़े-बड़े कामों के ठेकेदार बन गए। वहीं, खंडूड़ी से जुड़े कार्यकर्ता उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद उनके कामों को पूरा कराने में व्यस्त रहे। इस तरह भाजपा के दोनों गुटों को काम मिलता रहा। कांग्रेस की सरकार बनी तो बहुगुणा के मुख्यमंत्री बनने से उनसे जुड़े कार्यकर्ता व्यस्त रहने लगे। कई की ठेकेदारी चल पड़ी। फिर हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने पर उनसे जुड़े युवा भी अब रोजगार की तलाश में जुट गए। जो कार्यकर्ता निठल्ले बैठे थे, वे अब तड़के घर से निकल रहे हैं। उनके फोन बिजी जा रहे हैं। सीएम के कार्यक्रमों में अक्सर वे नजर आ रहे हैं। अब किसी को कोसने के लिए उनके पास वक्त नहीं है। पांच साल की सरकार में बार-बार मुख्यमंत्री बदलेंगे तो हर गुट के कार्यकर्ताओं को फायदा मिलेगा। फायदा क्यों न मिले। हजारों घोषणाएं हो रही हैं। इन घोषणाओं के शिलान्यास हो रहे हैं। इसे पूरा करने के लिए कार्यकर्ता ही आगे आएंगे। बार-बार मुख्यमंत्री बदलने से हर गुट के कार्यकर्ता को ठेकेदार बनने का मौका मिल रहा है। बिजनेस बनती जा रही राजनीति यहां कार्यकर्ताओं के लिए फायदे का सौदा साबित हो रही है। वहीं निवर्तमान सीएम के कार्यकाल की घोषणाओं को पूरा करने के लिए उनसे जुड़े कार्यकर्ता भी जुटे रहेंगे। इसका कुछ तो असर राज्य के आधारभूत ढांचे के विकास कार्यों पर जरूर पड़ेगा और कुछ कार्यकर्ताओं की जेब पर भी। वहीं, नेताओं के बिजी रहने से शहर, गांव, मोहल्लों व कस्बों में अमन चैन भी रहेगा। क्योंकि नेता यदि खाली हो तो यह शुभ नहीं होता। नेता के बिजी रहने में ही सबकी भलाई है। यानी, हम भी खुश, तुम भी खुश और सारा जग खुश।
भानु बंगवाल

Saturday 8 February 2014

थोड़ी सी जो पी ली...

पीने-पिलाने की बात जब चले तो यह बताना जरूरी नहीं कि क्या पिया। क्योंकि पीने वालों के लिए तो शराब ही सबकुछ है। इसके लिए वे इंतजार करते हैं मौकों का। शादी हो या फिर कोई समारोह। जब तक हलक से नीचे नहीं उतरे तब तक आयोजन उनकी नजर में अधूरा ही रहता है। पीने वालों के अपने फार्मूले हैं, अपने तर्क हैं। रोज पीता हूं, लेकिन होश में रहता हूं। यह कहना होता है अक्सर पीने वालों का। वहीं, जो नहीं पीता वह पीने वालों को यही उपदेश देता है कि मत पिया करो। सेहत के लिए ठीक नहीं। तब पीने वाले उदाहरण देते हैं कि फलां को देखो, पीता नहीं था, लेकिन जल्द मर गया। उसे ही बीमारी लगी। वहीं, उपदेश देने वाले शराब से बर्बाद लोगों की सूची अपने जेहन में रखते हैं। शराब पीने वालों को वे ऐसे लोगों के उदाहरण देते हैं।
वैसे देखा जाए तो कोई भी नशा हो, जरूरत से ज्यादा नुकसानदायक होता है। हर काम की एक सीमा होती है। फिर भी मेरे शराबी भाइयों को ये समझ नहीं आता है। कल से छोड़ेंगे कहकर पैग-पर-पैग चढ़ाते जाते हैं। वह कल कभी नहीं आता।
वैसे शराबियों की कहानी भी अजीबोगरीब होती है। मरणासन्न अवस्था में पड़े एक व्यक्ति को डॉक्टर ने कहा कि आपका लीवर डेमेज हो चुका है। भीतर कुछ बचा नहीं है। हड्डियों में पानी भर गया। शराब छोड़ दो तो शायद कुछ ज्यादा दिन तक जी लोगे। इस पर व्यक्ति बोला, प्राण छूट जाएंगे, लेकिन मेरी शराब नहीं छूट सकती। हुआ भी यही, वह व्यक्ति ज्यादा दिन नहीं जिया। उसके बात बीबी व बच्चों की बेकदरी नहीं हुई, बल्कि वे ज्यादा सुखी नजर आने लगे।
अक्सर शराबी व्यक्ति गलती करने के बाद यही कहकर माफी मांगने लगता है कि नशे की हालत में उससे ऐसा हुआ। अब वह गलती नहीं करेगा। मेरे भाई, नशे में आप दूसरे का दरबाजा क्यों नहीं खटखटाते। अपने बच्चों, पत्नी या फिर अन्य को पहचानने में गलती क्यों नहीं करते हो। एक दिन मैं बस से दिल्ली से देहरादून को सफर कर रहा था। बस चलने के आधे घंटे के बाद कंडक्टर में सवारियों की गिनती की। फिर अपना हिसाब मिलाया। इसके बाद वह बोला कि बिना टिकट कौन है। सभी सवारी चुप। कंडक्टर को बस रुकवानी पड़ी। हरएक सवारी से टिकट दिखाने को कहा। जांच चल रही थी कि एक व्यक्ति बोलने लगा कि बस चलाते रहो, टिकट चलती बस में ही चेक कर लेना। कंडक्टर ने उस व्यक्ति से पूछा कि आपके पास टिकट है। वह व्यक्ति अटक-अटक कर बोल रहा था। वह बोला मेरे पास सिकट (टिकट) है। कंडक्टर ने कहा दिखाओ। इस पर वह बोला मेरे पर्स में है। वह जेब टटोलने लगा। कंडक्टर को पता चल गया कि यही नशेड़ी बगैर टिकट है। उसने टिकट खरीदने को कहा तो वह बहस करता रहा कि मेरे पास सिकट है, पर दिखा नहीं रहा था। कभी कमीज की जेब टलोल रहा था तो कभी पेंट की जेब। कभी पर्स खोलता, लेकिन टिकट कहीं नहीं था। हो सकता है कि उसने टिकट खरीदा हो और गिर गया हो, लेकिन उसके शराब के नशे में होने के कारण कंडक्टर उसका क्यों विश्वास करता। नतीजन, बस से उसे उतार दिया। उतरते ही वह भद्दी गालियां बरसाने लगा। उसकी आवाज तब तक सुनाई देती रही, जब तक बस आगे नहीं निकल गई।
शराबी को तो सिर्फ अपनी बोतल से ही प्यार होता है। वह बीबी, बच्चों की कसम खा सकता है। हर जरूरी काम छोड़ सकता है, लेकिन पीने के समय में पीना नहीं छोड़ता। वर्ष 1975 में देहरादून में शराब के गिने चुने ठेके थे। राजपुर रोड से सटे मोहल्लों में रहने वाले शराबी अक्सर पांच-छह किलोमीटर दूर का सफर कर राजपुर स्थित शराब के ठेके में शराब पीने जाते। पीने के बाद वापस लौटते समय ऐसे कई एक बोतल घर के कोटे के रूप में खरीदकर चल देते। एक रात करीब आठ बजे राजपुर रोड के तेज ढलान में सेंट्रल ब्रेल प्रेस के निकट एक सिटी बस पलट गई। इस दुर्घटना में बस की छत जमीन पर और चारों पहिये आसमान की तरफ हो गए। गनीमत यह रही कि गिनी-चुनी दस-बारह सवारियों में से किसी की जान नहीं गई। अलबत्ता कुछ को हल्की खरोंच जरूर आई। बस पलटने की आवाज पर आसपास के लोग मदद को मौके की तरफ दौड़े। बस में फंसी सवारियों को बाहर निकालने लगे। तभी एक व्यक्ति ने मदद करने वाले हाथों को झटक दिया। फिर उसने खुद को टटोला। फिर यह देखकर खुश हुआ कि उसकी बोतल सही सलामत थी। जब उससे एक ने पूछा कि चोट तो नहीं लगी, तो उसका कहना था कि हां बोतल बच गई। नहीं तो कल दोबारा लेने जाना पड़ता। सभी सवारी खुश थी कि उनकी जान बची, वहीं शराबी बोतल न टूटने पर खुश था।
कई बार तो शराब का आदि ऐसे संकट में फंसता है कि उससे निकलना भी मुश्किल हो जाता है। घंटाघर के निकट देहरादून में कभी सिटी बस अड्डा होता था। अक्सर रात को यहां भी शराबी नजर आते थे। कुछ का तो यह ठिकाना ही था। एक बस के पीछे एक शराबी अचेत पड़ा था। लोगों ने इसकी सूचना पुलिस को दी। पुलिस ने टटोला तो नब्ज नहीं चल रही थी। दून अस्पताल लेकर पुलिस पहुंची, तो डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया। इस पर पुलिस ने शव को अस्पताल की मार्चरी में डलवा दिया। मार्चरी भी ऐसी कि उसका दरबाजा टूटा हुआ था। मृतक की पहचान हो चुकी थी। अगले दिन पंचनामा भरा जाना था। ऐसे में शव को कपड़े में लपेटकर सील नहीं किया गया। नियति को कुछ और मंजूर था। जिसे मृत मान रहे थे, सुबह उसके शरीर पर हरकत होने लगी। वह चुपचाप उठा और मोर्चरी से निकलकर चल दिया। अगले दिन हड़कंप मच गया कि मुर्दा गायब हो गया। काफी खोजबीन हुई। पुलिस मृतक के घर की तरफ चल दी। वहां जब सिपाही पहुंचे तो देखा कि जिसे मृत समझकर मार्चरी में डाल दिया था, वह घर के आंगन  में बैठा चाय पी रहा है।
कुछ साल से देहरादून में विक्रम टैंपो ही लोगों की लोकल आवाजाही का सुलभ साधन हैं। देहरादून में राजपुर रोड में राजपुर की तरफ जाते समय काफी चढ़ाई पड़ती है। वापसी में गाड़ी न्यूट्रल में ही सड़क पर ऐसे फिसलती है, जैसे पूरी स्पीड में दौड़ रही है। एक शाम एस्लेहाल से विक्रम में राजपुर रोड की सवारी लेकर चालक चला। एक व्यक्ति जो चालक के बगल में बैठा था ठीक से अपना सिर तक नहीं संभाल पा रहा था। पूरे नशे में होने के बावजूद वह बार-बार बोलकर चालक को परेशान भी कर रहा था। चालक बार-बार उससे यही कहता चाचा चुप होने का क्या लोगे। आरटीओ की सीधी चढ़ाई में चालक ने विक्रम की गति धीमी की, तभी पीछे बैठा एक युवक उतरा और बगैर पैसे दिए, भागने लगा। ये ड्राइवर भी चौकन्ने होते हैं। यदि वे हर सवारी पर नजर नहीं रखें तो सभी बगैर पैसे दिए रफूचक्कर हो जाए। चालक ने टैंपो रोका और फुर्ती से सवारी को पकड़ने को दौड़ पड़ा। खड़ी चढ़ाई में टैंपो को रोका गया था। चालक के भागने पर टैंपो पीछे को लुढ़कने लगा। अन्य सवारियां चिल्लाने लगी। तभी लगा कि टैंपो अब पीछे को नहीं जा रहा है। सभी सवारियों ने देखा कि जो शराबी चालक के पास बैठा बड़बड़ कर रहा था, वह टैंपो के पीछे खड़ा है। उसके दोनों हाथ टैंपो पर लगे थे और वह पीछे टैंपो को लुढ़कने से रोकने को आगे को धक्का दे रहा है। इसी बीच टैंपो चालक भी पैसे वसूलकर आ गया। उसने यह नजारा देखा तो अपनी गलती का उसे अहसास हुआ कि ठीक से उसने ब्रेक नहीं लगाए। साथ ही किसी हादसे को टालने वाले शराबी के आगे वह नतमस्तक हो गया।
भानु बंगवाल