Saturday 29 March 2014

कीमत लहू की..

क्या व्यक्ति-व्यक्ति के खून में फर्क हो सकता है। सबके खून का रंग तो एक सा होता है। हां फिर फर्क यही हो सकता है कि व्यक्ति-व्यक्ति का ब्लड का ग्रुप बदल जाता है। फिर क्यों कहा जाता है कि इसका खून ठंडा है, उसका खून गर्म है। यह अंदाजा तो हम व्यक्ति की आदत से ही लगाते हैं। ऐसी आदत खून से नहीं बल्कि व्यक्ति के संस्कार व कर्म से पड़ती है। वैसे देखा जाए, जब तक हमारी शिराओं में बगैर किसी व्यवधान के रक्त दौड़ता रहता है, तब तक जीवन की डोर सुरक्षित रहती है। किसी के शरीर में एक बूंद खून बनने में जितना वक्त लगता है, उससे कम वक्त तो देश को जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर बांटने वाले लोग दूसरों का खून बहाने मे भी नहीं लगाते हैं। ऐसे लोग किसी के जीवन को बचाने में भले ही अपना खून न दे सकें, लेकिन दूसरों के खून से होली खेलने में जरा भी गुरेज नहीं करते।
फिर भी समाज में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है, जो दूसरों का जीवन बचाने में रक्तदान करना अपना सोभाग्य समझते हैं। एक दिन एक मित्र मिले बोले रक्तदान करके आ रहा हूं। सार्टीफिकेट भी मिला है। अब तक उनके पास ऐसे दो प्रमाणपत्र हो गए हैं। मैने मन में सोचा कि मैने भी तो रक्तदान किया, लेकिन कभी प्रमाणपत्र लिया ही नहीं। सच यह है कि रक्तदान करना आसान नहीं। यदि शरीर में एक छोटा कांटा चुभ जाए और एक बूंद खून निकल जाए तो व्यक्ति विचलित हो उठता है। फिर किसी को रक्तदान के लिए एक बोतल खून शरीर से निकालना क्या आसान काम है। फिर भी रक्तदान से व्यक्ति को जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। रक्तदान के नाम पर शुरूआत में हर व्यक्ति डरता है, लेकिन यदि एक बार कोई रक्तदान कर दे तो फिर उसे बार-बार इस पुनीत कार्य के लिए जरा भी भय नहीं लगता।
वैसे देखा जाए तो अक्सर पहली बार रक्तदान का मौका घर परिवार के किसी व्यक्ति की जान बचाने में ही आता है। मेरे साथ भी पहली बार ऐसा ही वाक्या हुआ। सरकारी नौकरी से रिटायर्डमेंट के बाद पिताजी को एक साथ कई बीमारी ने जकड़ लिया। फेफड़ों में इनफेक्शन, सांस की बीमारी ना जाने क्या-क्या। एक दिन तो ऐसा आया कि उन्हें बेहोशी छाने लगी। वर्ष 1991 की बात है। तब मैं स्थानीय समाचार पत्र में क्राइम रिपोर्टिंग करता था। बड़ा भाई और मैं पिताजी को सरकारी अस्पताल ले गए। पिताजी को दून अस्पताल में विश्वास नहीं था। अस्पताल पहुंचने पर जब उन्हें होश आया तो वह प्राइवेट वार्ड के एक कमरे में बैड पर लेटे थे। उनसे हमने झूठ बोला कि उन्हें प्राइवेट अस्पताल में लाया गया है। ताकि वह उपचार कर रहे डॉक्टरों पर विश्वास कर सकें।
पिताजी की हालत नाजूक थी। डॉक्टरों ने कहा कि तुरंत खून चाहिए। कम से कम दो बोतल। एक यूनिट (बोतल) खून तो किसी समाजसेवी संस्था से मिल गया। दूसरी की इंतजाम नहीं हो सका। इस पर मैने अपना रक्त परीक्षण कराया तो वह मैच कर गया। तब मैं काफी कमजोर था। मोटा होने के लिए मैं खानपान में तरह-तरह के टोटके करता, लेकिन मेरा वजन 45 किलो से ज्यादा नहीं बढ़ रहा था। हालांकि मुझे कोई तकलीफ नहीं थी। मैं फुर्तीला भी था, लेकिन शरीर से दिखने में दुर्बल ही नजर आता। मेरे खून देने की बात आई तो कई ने कहा कि मत दो। कहीं से इंतजाम करा लो। कहीं खून देने से ऐसा न हो कि कोई दूसरी मुसीबत खड़ी हो जाए। कहीं उलटे मुझे ही खून चढ़ाने की नौबत न आ जाए। पर मुझे तो बेटे का धर्म निभाना था। सो मैंने खून दे दिया। हां पिताजी को यह नहीं बताया गया कि मैने खून दिया। क्योंकि यह जानकर वह परेशान हो उठते।
उस दौरान पंजाब के आतंकवाद ने पांव पसारकर देहरादून में भी अपनी पैंठ बना ली थी। अक्सर पुलिस व आतंकियों की मुठभेड़ देहरादून में भी होती रहती। जिस दिन सुबह मैने खून दिया, उससे पहली रात को डोईवाला क्षेत्र में आतंकवादी खून की होली खेल चुके थे। सड़क पर बम लगाकर उन्होंने बीएसएफ का ट्रक उड़ा दिया था। जैसे ही मैने खून दिया। तभी पता चला कि दून अस्पताल में बीएसएफ के शहीद कमांडर व कुछ जवानों के शव पोस्टमार्टम के लिए दून अस्पताल लाए गए हैं। खून देने में दर्द का क्या अहसास होता है या फिर खुशी का क्या अहसास होता है। इसका मुझे अंदाजा तक नहीं हुआ। क्योंकि मैं रक्तदान के तुरंत बाद आतंकियों से संबंधित घटना की रिपोर्टिंग में जुट गया। मेरे सामने शहीदों के खून से सने शव पड़े हुए थे। वहीं अस्पताल में मेरे पिताजी समेत न जाने कितनों की जान बचाने के लिए मरीजों पर खून चढ़ रहा था।
पिताजी अस्पताल से ठीक होकर घर पहुंच गए। उनकी तबीयत पूछने लोग आते, वह अपना हाल सुनाते। बाद में उन्हें यह तो पता चल गया कि उन्हें दून अस्पताल में रखा गया है, लेकिन यह पता नहीं चला कि खून किसने दिया। अक्सर वह यही कहते कि सरकारी अस्पताल था। इसलिए अब मुझमें पहले जैसी ताकत नहीं रही। ठीक से इलाज नहीं किया। लगता है कि खून भी नकली चढ़ाया गया। असली होता तो हाथों में कंपकपाहट नहीं होती। हालांकि अस्पताल से घर आने के बाद वह नौ साल और जिए।
वर्ष 96 में मेरा तबादला सहारनपुर हो गया। वहां जब भी मैं होटल में खाना खाता तो मेरे पास सुहागा का चूर्ण जेब में रहता। किसी ने बताया था कि सुहागा गर्म कर उसका चूर्ण बना लो। खाने में इसे मिलाया जाए तो व्यक्ति मोटा हो जाता है। मैं भी वही करता था, पर मोटा नहीं हो सका। एक दिन सूचना मिली कि चंडीगढ़ से दून समाचार पत्रों को ले जा रहा वाहन रास्ते में पलट गया। इस दुर्घटना में एक पत्रकार महाशय घायल हो गए। घायल को सहारनपुर के जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया। ये पत्रकार महाशय तब ठीक-ठाक पैग चढ़ाने के मामले में बदनाम थे। यदि वह वाहन में नहीं बैठे होते और अपने वाहन में होते तो सही समझा जाता कि नशे में उन्होंने गाड़ी सड़क से उतार दी। अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि पत्रकार महाशय की हालत काफी गंभीर है। यदि तुरंत खून नहीं मिला तो बचना मुश्किल है। मैं उन महाशय को सिर्फ नाम से जानता था। व्यक्तिगत मेरी उनसे कोई मुलाकात तक नहीं थी। हम कुछ पत्रकारों से अस्पताल में चिकित्सकों ने पूछा कि किसी का ब्लड ग्रुप ए पॉजीविट है। तो मुझसे मोटे-मोटे, लंबी चौड़ी कदकाठी वाले सभी बगलें झांकने लगे। तब मुझे ही आगे आना पड़ा, सबसे कमजोर था। खून से पत्रकार महाशय बच गए, लेकिन न तो मैं कभी उनसे मिल पाया और न ही कभी वह मुझसे मिले। शायद उन्हें यह भी नहीं मालूम हो कि, उन्हें जिसने खून दिया है वह देहरादून में उनके घर के पास मश्किल से दो सौ मीटर की दूरी पर रहता है। खैर ये महाशय भी स्वस्थ्य रहें ऐसी मेरी कामना है।  
तीसरी बार मुझे खून अपनी बड़ी बहन के लिए देना पड़ा। बहन का आपरेशन था। दो यूनिट खून की जरूरत थी। मेरा ग्रुप मैच करने पर मैं रक्तदान को तैयार हो गया। साथ ही दो और बहने भी खून देने को तैयार थी। तभी मेरे मित्र नवीन थलेड़ी ने कहा कि वह खून दे देगा बहनों को परेशान नहीं करते। हम दोनों से रक्त दिया। बहन को खून की एक यूनिट ही चढ़ी। एक यूनिट बच गई। जो अस्पताल के ब्लड बैंक में रख दी गई। कुछ दिन बाद मुझे एक फोन आया कि एक महिला 80 फीसदी जली हुई है। उसे तुरंत खून चाहिए। यदि आप अनुमति दें तो ब्लड बैंक में बची आपकी यूनिट का इस्तेमाल उसकी जान बचाने में कर सकते हैं। न तो मैने मरीज महिला को देखा ना ही रक्त मांगने वाले को। रक्त मांगने वाला शायद दलाल भी हो सकता था। पर मैने यह सोचकर अनुमति दे दी कि हो सकता है कि मेरे खून से महिला की जान बच जाए। इस बार मुझे यह भी पता नहीं चल सका कि जिसे मैने खून दिया उसका क्या हुआ।   
भानु बंगवाल

Thursday 27 March 2014

क्रेजी किया रे....

एक शक्ल के दो व्यक्ति कई बार मिल जाते हैं। ऐसा ज्यादातर जुड़वां भाई या जुड़वां बहनों में देखा जा सकता है। फिर भी कद-काठी, आदत से दोनों में अंतर कर पाना आसान होता है। कई बार दोनों की शक्ल ऐसी हो कि अंतर करना भी मुश्किल पड़ जाए तो शायद पहचान करने में पापड़ बेलने पड़ सकते हैं। फिर भी इंसान ऐसे हमशक्लों को पहचान ही लेता है। वैसे तो फिल्मों में होता है कि एक शक्ल के दो व्यक्ति को जब कोई पहचान नहीं सका तो बाद में पालतू जानवर ही अपने मालिक को पहचानता है। जानवर तो सुंघकर मालिक को पहचान लेते है। इसके ठीक उलट एक शक्ल वाले दो जानवरों के बीच भेद करना हो तो शायद काफी मुश्किल हो सकता है। क्योंकि बेजुबान तो यह भी नहीं बता सकता कि असली कौन है या नकली कौन। ऐसे में कोई  क्रेजी हो तो क्या कहने।
एक पुलिस के अधिकारी के घर में पालतू कुत्ते का नाम क्रेजी था। लेबराडोर प्रजाति के इस कुत्ते का रंग काला था। क्रेजी की नटखट हरकतों का सुबह से लेकर शाम तक घऱ में कोई न कोई जिक्र जरूर छिड़ा रहता। साहब के साथ ही साहब के बेटे ने क्रेजी को सिर चढ़ा रखा था। मैडम की तो वह सुनता ही नहीं था। इस पर मैडम क्रेजी से कुछ चिढ़कर रहती थी। देहरादून की एक कालोनी में इंस्पेक्टर साहब किराए के मकान में रह रहे थे। एक दिन मैडम ने क्रेजी को किसी बात पर डंडा दिखा दिया, जिससे क्रेजी रुष्ट हो गया। घर का गेट खुला देककर चुपचाप क्रेजी घऱ से खिसक गया। पहले इंस्पेक्टर के बेटे ने क्रेजी को घर के आसपास तलाश किया। फिर भी जब उसका पता नहीं चला तो उसने अपने पिता को इसकी रिपोर्ट मोबाइल से दी। पिता ने कहा कि घर के आसपास गलियों के कुत्तों के साथ खेल रहा होगा। बेटे ने बताया कि चारों तरफ तलाश कर लिया है। कहीं पता नहीं चल रहा है। लगता है कि किसी ने चोरी कर लिया। थानेदार का कुत्ता कौन चोरी करेगा। किसी को बेमौत मरना है। यही सोचकर इंस्पेक्टर साहब गरजे और कहा-मैं कुछ सिहापियों को घर भेज रहा हूं। वे कुत्ता तलाशने मे तुम्हारी मदद करेंगे।
इंस्पेक्टर साबह का फरमान मातहत कैसे नकारते। जो सिपाही चोर व बदमाश की तलाश में भटकते थे, वे साहब के क्रेजी की तलाश में जुट गए। नतीजा शून्य ही निकला। क्रेजी का कोई पता नहीं चला। कई दिन खोज चली, बाद में यह मान लिया गया कि अब क्रेजी का मिलना मुश्किल है। जिस तरह अपराधी काफी प्रयास के बाद भी नहीं मिलता तो पुलिस फाइनल रिपोर्ट लगाकर केस बंद कर देती है। यही हाल क्रेजी की खोज का भी हुआ। एक  माह कर सभी इस आस में थे कि क्रेजी मिल जाएगा। धीरे-धीरे उसके मिलने की उम्मीद धूमिल पड़ गई। उसकी खोज भी बंद कर दी गई।
क्रेजी के खोने के ढाई माह बाद एक घटना घटी। इंस्पेक्टर साहब का बेटा रोहित मोटरसाइकिल से किसी दोस्त के घर जा रहा था। रास्ते में उसे क्रेजी की शक्ल का एक कुत्ता दिखा। रोहित रुका और इस उम्मीद से कि कहीं यह क्रेजी तो नहीं उसने कुत्ते को पुकारा.... क्रेजी। कुत्ता भी उसकी तरफ देखने लगा। दोबारा पुचकारने पर कुत्ता रोहित के निकट आ गया। यह क्रेजी ही तो था। जो ढाई साल का था। वही हरकत, वही लाड-प्यार दिखाने की उसकी आदत। हां क्रेजी मिल गया। रोहित खुश हुआ और कुत्ते को पुचकारते हुए अपने पीछे आने को कहा। आगे-आगे रोहित और पीछे-पीछे यह क्रेजी। रोहित उसे घर लाया। घऱ में सभी खुश थे कि जो काम पुलिस का तंत्र नहीं कर सका वह रोहित ने कर दिखाया। अबकी बार मैडम ने भी क्रेजी को खूब दुलारा। शायद वह रुठा न हो। मैडम को क्रेजी कुछ मैला लगा तो उसे शैंपू से नहलाया गया। फिर क्रेजी को पशु चिकित्सक के पास ले जाकर वे टीके लगाए गए जो लगने बाकी थे। खोने के बाद जब क्रेजी दोबारा घर आया तो किसी को यह शक नहीं हुआ कि वह क्रेजी नहीं है। उसकी सारी आदतें पहले जैसी ही थी।
क्रेजी के मिलने के करीब पंद्रह दिन बाद इंस्पेक्टर की नजर एक और ऐसे कुत्ते पर पड़ी जो एक चारदीवारी के भीतर उछलकूद मचा रहा था। यह चारदीवार उनके घर के निकट ही थी, जो सैन्य एरिया की थी। ऊंची दीवार पर सड़क की तरफ जो गेट था, उसी के भीतर उसे वह कुत्ता नजर आया जो क्रेजी की ही शक्ल व प्रजाति का था। उन्हें लगा कि कहीं यही तो क्रजी नहीं। कहीं भूलवश रोहित दूसरा कुत्ता घर ले आया। यही क्रेजी हो सकता है। क्योंकि यह घऱ के ही पास चारदीवारी में कैद है। इस फौजी एरिया का मुख्य गेट ही अक्सर खुलता था, जो उनके घऱ से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर था। पिछला गेट बंद रहता था, उसकी दूरी घर से मुश्किल से सौ मीटर थी। उन्होंने इस कुत्ते को भी क्रेजी-क्रेजी पुकारा तो वह पिछले गेट के पास सामने खड़ा हो गया और दुम हिलाने लगा। इंस्पेक्टर को लगा कि यही क्रेजी है। 22 साल के रोहित को अपने कुत्ते को ही पहचानने में कैसे गलती हुई, वह यह नहीं समझ सके।
इंस्पेक्टर साहब सैनिक एरिया में मुख्य गेट से पहुंचे। वहां मौजूद फौजियों से उन्होंने कुत्ते के बारे में पूछा। फौजी ने बताया कि यह कुत्ता तो पिछले ढाई माह से उनके पास है। पहले तो काफी दुबला था, अब मोटा भी हो गया। इंस्पेक्टर साहब ने जब क्रेजी को पुचकारा तो वह ठीक उसी तरह उनसे लिपटने लगा जैसे उसकी आदत थी। वह कार में बैठाकर इस क्रेजी को घर ले आए। एक घर में एक शक्ल के दो कुत्ते और दोनों क्रेजी। आवाज दो तो दोनों सामने खड़े हो जाएं। दोनों एक दूसरे पर गुर्राते कि मानो दूसरा नकली हो। कुत्तों को आपस में लड़ता देख इंस्पेक्टर का परिवार परेशान हो गया। एक शक्ल के दो आदमी हो तो उसे कुत्ता पहचान सकता है, लेकिन कुत्ते को कौन पहचाने कि कौनसा असली क्रेजी है। दो कुत्ते पालना भी मुश्किल है। मंहगाई में बजट उनकी परवरिश में ही बिगड़ जाएगा। पर किस क्रेजी को घर से बाहर करें यह किसी को नहीं सूझ रहा था। डर यह था कि कहीं असली क्रेजी बाहर न हो जाए। मैडम कहती जो बाद में मिला वही क्रेजी है। रोहित कहता कि जो पहले मिला वही क्रेजी है। कोई तय नहीं होने से दोनों क्रेजी ही मौज कर रहे थे।
होली आई और मैडम ने घर में गुजिया बनाई। दोनों क्रेजी मैडम के सामने कीचन के बाहर बैठे थे। मैडम ने दो गुजिया उठाई और एक-एक दोनों के आगे उछाल दी। बस यहीं भेद खुल गया। एक क्रेजी गुजिया एक झटके में चट कर गया, वहीं दूसरा उसे सूंघ कर अलग हट गया। मैडम को याद आया कि क्रेजी तो गुजिया बड़े शोक से खाता था। मैडम खुशी से चिल्लाई- रोहित, जिस क्रेजी को तुम लाए, थे, वह हमारा क्रेजी नहीं है। उसे अपने दोस्त को दे दो।
भानु बंगवाल        
 

Saturday 22 March 2014

मौके की नजाकत भांपकर बदल रहे वेश...

लो आ ही गया चुनाव का मौसम। छल, कपट, फरेब से नाता रखने वाले, दूसरों को धोखा देने वालों से हिसाब चुकाने का मौका। इस मौके से चूकना नहीं है। क्योंकि आपकी चौखट में अब भिखारियों के आने का सिलसिला शुरू हो जाएगा। इनमें से कौन ज्यादा ईमानदार भिखारी है, उसका चयन ही तो आपने करना है। उसकी अच्छी बुरी आदतों का नापतौल आपको ही करना है। फैसला आपको ही देना है। वैसे तो आप हर बार फैसला देते हैं, लेकिन यह खुद से भी सवाल करना है कि जो हम करने जा रहे हैं, क्या यह वास्तव में ठीक है। हम जिसे चुन रहे हैं, क्या वो किसी की भलाई कर सकता है। वैसे तो इन भिखारियों से भलाई की उम्मीद लगाना बेमानी होगा। फिर भी जब हम भ्रष्टाचारियों में से एक को चुनते हैं तो यह देखना जरूरी है कि आखिर कौन कम भ्रष्टाचारी है।
नेताओं के लिए मैं ऐसे अपमानजनक शब्द यूं ही नहीं बोल रहा हूं। मेरे शब्दों से यदि किसी को ठेस पहुंचे तो मैं उनसे क्षमाप्रार्थी हूं। वर्तमान में देश की राजनीति का जो हश्र इन नेताओं ने कर दिया, उसमें इस तरह के शब्द भी कम ही पड़ते हैं। क्योंकि मुझे भिखारी व नेताओं में ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। यदि दोनों को एक तराजू के दो पलड़े में डाला जाए तो भिखारी का पलड़ा ही शायद भारी निकले। क्योंकि भिखारी के लिए कोई छोटा या बड़ा नहीं है। मौके की नजाकत भांपते हुए वह अपना वेश बदलता है। पेट की आग बुझाने के लिए वह दूसरों को दुआएं देता है। वह हर जाति, समुदाय व धर्म के त्योहार में शरीक होता है। ईद के मौके पर ईदगाहस्थल के बाहर भिखारी मुस्लिम टोपी पहने नजर आता है। चादर फैलाकर वह भीख मांगता है और देने वालों को दुआएं देता है। क्रिसमस के मौके पर वह गिरिजाघरों के बाहर नजर आता है। वही व्यक्ति शिवरात्री जन्माष्टमी आदि हिंदुओं के त्योहार में मंदिरों के बाहर भी दिख जाता है। यहां सिर्फ उसके पहनावे में ही फर्क होता है। भीख मांगने का तरीका वही होता है। बस मस्जिद के बाहर अल्लाह भला करे, मंदिर के बाहर भगवान भला करे, गिरीजाघर के बाहर यीशु भला करे, जैसे शब्द उसकी जुबां से निकलते हैं। इन सब के बावजूद वह भीख में जो भी दक्षिणा लेता है, उसके बदले दुआ जरूर देता है।
अब नेताओं के चरित्र पर भी नजर डालिए। वह भी हर धर्म, संप्रदाय, जाति की बात करता है। कई बार तो वह धार्मिक आयोजनों में जाता है, तो पहनावा भी वहीं के हिसाब से रखता है। मौका मिलने पर वह भी वोट मांगता है। पर नेता तो लेता ही लेता है, बदले में वह कुछ नहीं देता। उलटा वोट मिलने के बाद यदि वह जीत जाए तो पब्लिक का खून चूसने के रास्ते भी तलाश कर लेता है। सच तो यह है कि मौका मिलने पर वह आदमी के लहू में रोटी डूबो कर खाने से भी संकोच नहीं करता।
भिखारी वक्त की नजाकत को भांपकर वेश बदलता है, भीख मांगने का स्थान बदलता है। नेता भी तो यही कर रहा है। पूरे जीवन भर एक पार्टी में रहकर दूसरे दल को गरियाता रहता है। चुनाव से पहले ऐन वक्त पर मौका देखकर पार्टी बदलने में भी जरा गुरेज नहीं करता। भले ही पहले तक उस दल को वह हर दिन गालियां देता रहा हो। चुनाव के मौसम में आजकल ऐसे लोगों की बाढ़ सी आई हुई है। बस वे तो आपस में लड़ना व दूसरों को लड़ाना जानते हैं। पूरब को पश्चिम से, उत्तर को दक्षिण से, ठाकुर को ब्राह्मण से, जाति, धर्म, सांप्रदायिकता के नाम पर एक दूसरे को लड़ाने में वह माहिर है। एक ठाकुर नेता ने एक दल छोड़ा। कारण यह रहा कि जातिभाई आगे बढ़ने नहीं दे रहा है। पुराने दल में नेताजी दमदार नेताओं की श्रेणी में आते थे। अब दूसरे दल में वह सेवा करने को पहुंच गए। सेवाभाव उन्हें अपने पुराने दल में नजर नहीं आया। जनता के हक की योजनाओं का लाभ खुद ही चट कर गए। अब कहते हैं कि दूसरे दल में सेवाभाव करेंगे और जूठी पत्तलों को उठाएंगे। खुद तो दल बदला, लेकिन पत्नी को पुराने दल में ही छोड़ दिया। यह भी ठीक है। दो दलों में घुसपैंठ रहेगी तो दोनों हाथों में लड्डू रहेंगे। वक्त की नुजाकत को देखते आपने खूब वेश बदला। पर जनता तो सब देख रही है, वह तो भोली है, नासमझ है। ऐसी जनता जाए भाड़ में।
भानु बंगवाल

Sunday 16 March 2014

भ्रष्टाचारी में भी ईमानदारी...

वैसे देखा जाए तो भ्रष्टाचार पर चर्चा कोई नया विषय नहीं है। आज से करीब चालीस साल पहले भी जब में छोटा था, तब भी लोगों के मुंह से यही सुनता था कि समाज में भ्रष्टाचार किस कदर बढ़ रहा है। यही नहीं बुजुर्ग अंग्रेजों के जमाने के किस्से सुनाते थे। साथ ही वे आजादी के आंदोलन की गाथा को भी बड़े चाव से सुनाते। साथ ही यह भी कहते कि अंग्रेजों के समय में भ्रष्टाचार कम था। अब ज्यादा देखने को मिल रहा है। इससे यह तो नहीं माना जा सकता कि अंग्रेजों के समय भ्रष्टाचार कम रहा होगा। हां इतना जरूर है कि पहले भ्रष्टाचार के मामले खुलते नहीं थे, अब आम हो गए हैं। यही नहीं चाहे महाभारत काल रहा हो या फिर राम के दौर का समय। तब भी समाज में  छल-कपट व्याप्त था। जो छल-कपट का सहारा लेते, उन्हें ही राक्षस की संज्ञा दी जाती। उन्हीं के कर्म ही तो भ्रष्टाचार का स्वरूप थे।
एक दिन सुबह सूचना मिली कि बहन के ससुराल पक्ष में एक महिला की मौत हो गई। मरने वाली महिला करीब 80 साल की थी, जो सरकारी स्कूल में शिक्षिका रही। जीवन भर वह कभी बीमार तक नहीं हुई। आखरी वक्त पर महिला ने जब बिस्तर पकड़ा तो दोबारा उठ नहीं सकी। पति भी सरकारी स्कूल से रिटायर्ड प्रींसिपल थे। तीन बेटे भी अच्छी खासी नौकरी पर हैं। सभी का अपना भरापूरा परिवार है। साधन संपन्न इतने हैं कि बेटों ने मां के इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी। निजी अस्पताल के आइसीयू में बुजुर्ग महिला ने ढाई माह काटे। फिर चल बसी।
भले ही किसी के सुख में शामिल न हों, लेकिन दुख की घड़ी में जरूर जाना चाहिए। ऐसी घड़ी में शोकाकुल परिवार को सांत्वना की जरूरत होती है। ऐसे मौकों पर मेरी समझ में नहीं आता कि वहां जाकर क्या कहूंगा। मैं तो चुपचाप एक कोने में बैठ गया। पहले से पता था कि महिला बीमार थी, यह भी पता था कि कब मरी। ऐसे में मैं क्या पूछता कि कैसे हुआ, कब हुआ। जिस दिन मैं शोकाकुल परिवार के घर पहुंचा, उससे एक दिन पहले महिला का दाह संस्कार हो चुका था। घर में बातचीत का क्रम भी कुछ अजीब सा लगा। कोई राजनीति की बात छेड़ता तो कोई समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार की दुहाई देता। बातचीत में ज्यादातर लोग नेताओं को ही कोसते। साथ ही सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार के किस्से भी सुनाते। मृतका के पति बताते हैं कि पूरी नौकरी के दौरान उन्होंने न तो रिश्वत ली और न ही दी। रिटायर्ड होने के बाद पेंशन व अन्य भत्तों की फाइल को आगे सरकाने के लिए वह एक लिपिक के पास पहुंचे तो उसे दो सौ रुपये देने पड़े। उसी दौरान लिपिक के पास एक सिफारिशी व्यक्ति भी पहुंचा। उससे पैसे नहीं मिले तो लिपिक ने यह कहकर टाल दिया कि देयों को भरने के लिए फार्म खत्म हो गए हैं। ट्रैजरी से फार्म आने में तीन दिन लग जाएंगे।
बातचीत का क्रम यहां भी खत्म नहीं हुआ और यह महाशय आगे बताने लगे कि बड़े बेटे को अपना ट्रांसफर लखनूऊ से ऋषिकेश कराना था। इलाहाबाद में फाइल फंसी हुई थी। साथ ही करीब ऐसे दस और लोगों की फाइल थी, जो ऋषिकेश जाना चाहते थे। सभी के पास कोई न कोई सिफारिश थी। उनके बेटे से एक बाबू ने पूछा कि तुम्हारे पर किसकी सिफारिश है। इस पर उसने जवाब दिया कि मेरे पास कोई सिफारिश नहीं है। साथ ही उसने बाबू की जेब में चार सौ रुपये रख दिए। इस पर बाबू ने कहा कि ये रुपये वापस रखो। जब ट्रांसफर हो जाएगा, तब देना। साथ ही उसने बताया कि हर फाइल के साथ मंत्रियों करी सिफारिश आई हुई है, पर काम तुम्हारा ही करुंगा। हुआ भी यही, बेटे का काम हो गया। तबादला आदेश मिलने पर ही उसने लिपिक को चार सौ रुपये दिए। महाशय ठंडी सांस लेकर बोले भ्रष्टाचार तब भी था और अब भी है, लेकिन तब ईमानदारी थी। तब काम करने के बाद ही पैसा लेते थे। अब तो पैसा भी लेते हैं और काम की कोई गारंटी नहीं।
भानु बंगवाल        

Saturday 8 March 2014

छोटी सी खता, इतनी बड़ी सजा...

सर्दी की रात के करीब साढ़े 11 बजे का समय। हल्की बूंदाबांदी ने मौसम को और ठंडक बना दिया। हाईवे और मुख्य मार्गों को यदि छोड़ दिया जाए तो शहर से लेकर गांव की सड़कें लगभग सुनसान थी। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं-कहीं सायरन बजाते पुलिस के वाहन सड़कों के सन्नाटे को तोड़ रहे थे। इतनी सर्दी भरी रात को भी पुलिस चुपचाप थाने में नहीं बैठी थी और पूरे सहारनपुर जिले की पुलिस रात को सड़कों पर दौड़ रही थी। साथ ही पुलिस के कई अधिकारी व सिपाही अपनी किस्मत को भी कोस रहे थे कि वे क्यों पुलिस में भर्ती हुए। किसी और डिमार्टमेंट में होते तो इस सर्द भरी रात को बच्चों के साथ बिस्तर में लंबी तान कर सो रहे होते। पर ड्यूटी में मुस्तैद रहना उनकी मजबूरी भी थी और फर्ज भी था। इस फर्ज को फोन की एक कॉल ने जगा दिया। यह कॉल पुलिस के लिए चुनौती बन गई।
पुलिस कंट्रोल रूम में रात करीब 11 बजे सूचना आई कि मोटर साइकिल सवार तीन बदमाशों ने शहर में तमंचे की नोक पर कई लोगों से लूटपाट की। वे गांव की सुनसान सड़क की तरफ भाग निकले। इसी कॉल के बाद जैसे ही कंट्रोल रूम से सूचना फ्लैश हुई तो पूरे जिले की पुलिस हरकत में आ गई। उस समय पुलिस कप्तान डॉ. रोहित एक पार्टी में दो पैग के साथ भोजन छकने के बाद अपने घर को लौट रहे थे। तभी वायरलैस पर लूट की सूचना मिली तो वे खुद भी अपनी कार सड़कों पर दौड़ाने लगे। साथ ही जिले की पुलिस को तलाशी अभियान चलाने, मोटर साइकिल सवारों पर नजर रखने के निर्देश देने लगे। वायरलैस सेट का माइक कप्तान साहब ने हाथ में लेकर मुंह से सटाया हुआ था। वह सीओ व अन्य थाना इंचार्जों से उनकी लोकेशन भी पूछ रहे थे। खुद उन्होंने अपनी कार चिलकाना रोड की तरफ दौड़ा रखी थी।
सहारनपुर जिले की चिलकाना रोड से करीब दस किलोमीटर हटकर एक गांव में अधिकांश घरों में लाइट बुझी हुई थी। कई घरों में ग्रामीण गहरी नींद में थे। सिर्फ हरिचरण के घर में कोहराम मचा हुआ था। क्योंकि हरिचरण के 25 वर्षीय जवान बेटे को जवान बेटे योगेश को सांप ने डस लिया था। अगल-बगल के घरों के कुछ लोग उनके यहां थे। बेटे को सांप ने शाम को काटा था। घर से करीब दस किलोमीर दूर एक डॉक्टर को दिखाने पर उसने सांप के काटे घाव पर चीरा लगाकर दवा भी दे दी थी। रात तक वह ठीक था, लेकिन 12 बजे से बाद से योगेश का दिल घबरा रहा था। परिवार में महिलाएं इसलिए घबराई हुई थी कि शायद अब योगेश न बचे। तभी हरिचरण से पड़़ोस का युवक हरीश बोला-चाचा डरने की कोई बात नहीं है। वह अभी मोटर साइकिल से पास के कस्बे में जाकर डॉक्टर को ले आएगा। सब ठीक हो जाएगा। इनती रात को कैसे जाओगे बेटा। ऊपर से बारिश हो रही है- हरिचरण बोला। हरीश ने कहा-ये बारिश आज पहली बार थोड़े ही हो रही है। मैं आध घंटे में डॉक्टर को लेकर आता हूं। हरिचरण ने सलाह दी कि रात का समय है, यूं कर उसके छोटे बेटे विनोद को भी साथ लेता जा। लौटते समय डॉक्टर समेत तीन लोग मोटर साइकिल में आ ही जाओगे।
हरीश ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की। हरिचरण का 18 वर्षीय बेटा विनोद पीछे से बैठ गया। तभी विनोद ने कहा कि भैया रुको, मैं घर से एक मिनट में आया। विनोद भीतर गया और उसी वक्त वापस आ गया। हरीश ने मोटर साइकिल स्टार्ट कर दी। फिर चलते समय विनोद से पूछा कि तुम क्यों वापस गए। विनोद ने कहा कि रात का समय है। कहीं बदमाश मिल गए तो क्या होगा। इसलिए ये कट्टा लेने गया था। कट्टा (देशी तमंचा)  का नाम सुनकर हरीश का दिल उछल पड़ा। वह बोला इसकी क्या जरूरत थी और तुम्हारे पास कहां से आया। इसे फेंक दो। इस पर विनोद बोला- भैया आजकल गांवों में डकैती की घटनाएं काफी बढ़ रही हैं। इससे निपटने के लिए युवकों ने सुरक्षा के लिए हथियार रखे हैं। ऐसे हथियार तो घर-घर में मिल जाएंगे। इस पर हरीश ने कहा- फिर भी बगैर लाइसेंस के हथियार रखना गैरकानूनी है। इससे कभी व्यक्ति मुसीबत में पड़ सकता है। फिर भी आगे से ख्याल रखो कि ऐसे हथियार न रखो। यदि किसी बदमाश ने तुम्हें मारने की ठान रखी हो तो हथियार कुछ नहीं करेंगे। रास्ते भर योगेश को हरीश समझा रहा था कि वह गलत कर रहा है, वहीं योगेश अपनी बात को सही ठहराने में तर्क में कुतर्क देता रहा।
हरीश पछता रहा था कि वह अपने साथ योगेश को क्यों लाया। गणेश राम का इकलौता बेटा था हरीश। जो एक साल पहले ही सेना में भर्ती हुआ था। पहली छुट्टी में वह गांव आया था। उसके माता-पिता का इरादा था कि छुट्टियों के दौरान ही उसका रिश्ता भी तय कर दिया जाए। इसके लिए कुछएक स्थानों पर बातचीत भी चल रही थी। शायद दो-तीन दिन के भीतर टीके की रस्म भी पूरी हो जानी थी, पर नियति को कुछ ओर मंजूर था।
डॉक्टर फिरोज को जब हरीश ने योगेश की हालत बताई तो वह बोला कि सांप के काटने से मरीज ज्यादा घबरा जाता है। उस पर जहर का असर होता तो पहले ही हो जाता। अब तो सिर्फ वहम है। फिर भी वह साथ चलकर उसे दवा दे देगा। उसकी हालत में निश्चित ही सुधार होगा। डॉ. फिरोज रात को ही तैयार हुए और उनके साथ मोटर साइकिल में बैठकर गांव की तरफ चल दिए। गांव से करीब दो किलोमीटर निकट जब वे पहुंचे तो उस समय रात के दो बज चुके थे। तभी पीछे से पुलिस की सायरन बजाती कार की आवाज सुनाई दी। हरीश ने योगेश से कहा कि पुलिस आ रही है, कट्टे को सड़क किनारे झाड़ी में फेंक दो। योगेश ने कहा भैया डरने की बात नहीं। घर पहुंच ही चुके हैं। मोटर साइकिल की स्पीड तेज कर दो। हरीश ने स्पीड तो बढ़ाई, लेकिन वह कट्टे को फेंकने को भी जोर देता रहा। डॉ. फिरोज को जब कट्टे का पता चला तो वह भी हरीश की तरह योगेश को समझाते रहे। योगेश भी ढीठ था, वह कट्टा फेंकने को राजी न हुआ। वह बोला कि पुलिस तो गश्त कर रही है। यह उनकी नियमित ड्यूटी है। तुम चलते रहो।
हरीश मोटर साइकिल की स्पीड जितनी तेज करता, सायरन बजाती पुलिस कार उतनी ही तेजी से उनका पीछा करती। कार निकट आ रही थी। साथ ही कार में लगे छोटे लाउड स्पीकर से उन्हें रुकने को कहा जा रहा था, पर घबराहट में उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था। हरिचरण के घर के घेर (आहते) तक कार उनके पास पहुंच गई। युवक मोटर साइकिल से उतरते कि कार के भीतर से कप्तान साहब की रिवालवर आग उगलने लगी। तीनों युवक आहते में ही ढेर हो गए। कप्तान साहब सादी वर्दी में थे। अपनी सफलता पर खुशी से चौड़े होते हुए उन्होंने कार से बाहर कदम निकालने को दरवाजा खोला। तभी वायरलैस पर सूचना फ्लैश हुई कि रात 11 बजे जारी की गई लूट की सचूना फर्जी थी। यह दूसरे जनपद के सीओ ने फ्लैश कराई थी। जो पुलिस की मुस्तैदी परखने के लिए मात्र टेस्ट रिपोर्ट थी। गलती का अहसास होते ही कप्तान साहब ने कार का दरबाजा बंद किया और वहां से खिसक गए। हरिचरण का बेटा योगेश जिसे सांप ने डंसा था, वह भी तब तक दम तोड़ चुका था। वहीं घर के आहते में तीन और बेकसूरों की लाश पड़ी थी।
भानु बंगवाल 

Sunday 2 March 2014

ये टोटके भी हैं निराले...

ऐसे लोगों की इस दुनियां में कमी नहीं है, जो बात-बात पर टोटकों को सहारा लेते हैं। यानी कुछ करो, नहीं लेकिन वे टोटके करना नहीं भूलते हैं। इन्हीं टोटकों के भरोसे अपनी किस्मत को चमकाने के प्रयास में रहते हैं। यदि डूबता व्यक्ति हाथ-पैर पतवार की तरह नहीं चलाएगा, तो शायद ही वह बच पाए। किसी भी काम की सफलता व्यक्ति की मेहनत पर ही तय होती है। टोटके तो सिर्फ मन का भ्रम मिटाने के लिए होते हैं। इनसे किसी का भला नहीं हो सकता। फिर भी इस सच्चाई से अनजान लोग न जाने क्यों ऐसी बातों का सहारा लेते हैं, जिनसे उनकी किस्मत बदलना संभव नहीं है। टेवीविजन के चैनलों पर भी ऐसे टोटकों के प्रचार की भरमार देखी जा सकती है। फला अंगूठी पहनों, मंत्र वाला फला जंत्र को अपनाओ और फिर देखो उसका कमाल। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि एक अंगूठी पहनने से आपकी किस्मत बदल जाए। किस्मत तो सिर्फ उसकी ही बदलेगी जो आपको अपना यंत्र बेच रहा है। जो यह दावा करता है कि मंत्र से शुद्ध की हुई अंगूठी से आपकी किसम्मत चमकेगी, भला तो उसी का ही होता है। क्योंकि वह ऐसी अंगूठियां बेचकर दोनों हाथों मालामाल हो रहा है।
मैं एक व्यक्ति को जानता हूं, जो पहले तांगा चलाता था। अब देहरादून की सड़कों पर तांगे चलते नहीं। उसके सामने यह समस्या थी कि वह अपने घोड़े का इस्तेमाल कहां करे। शादी के मौके पर ही घुड़चढ़ी के लिए घोड़े की डिमांड होती है। ऐसे में वह अपना गुजारा कैसे करे। फिर घोड़ेवाले को टोटका सूझा। काले व भूले रंग के घोड़े पर उसने काला रंग चढ़ा दिया। फिर घोड़ा लेकर सड़क पर हर दिन घूमने लगा। टोटके को जीवन में अपनाने वालों की नजर जब उसके घोड़े पर पड़ी तो ऐसे लोगों ने घोड़े की नाल खरीदनी शुरू। नाल को वह मुंहमांगी कीमत पर बेचने लगा। काले घोड़े की नाल खरीदने वाले लुहार से नाल के लोहे का छल्ला बनवाकर हाथ में अंगूठी बनाकर पहनते हैं। घोड़ास्वामी जैसे ही घोड़े की नाल उतारकर बेचता, उसी समय वह अपने थैले से दूसरी नाल घोड़े के पैर में ठोक देता। नाल बेचने का उसका यह धंधा खूब चल पड़ा। एक दिन में उसे चार-पांच ग्राहक तो मिल ही जाते हैं।
शनिवार के दिन अधिकांश दुकानदार दुकान के शटर में ताले के पास टोटका भी बांधने लगे हैं। इसमें एक नूींबू, पांच हरी मिर्च होती है। दुकान खुलने के समय मुख्य बाजारों में नींबू व मिर्च की माला बेचने वाले भी खूब मिल जाते हैं। ऐसी सामग्री बेचकर उनका धंधा भी खूब चल रहा है। यदि हिसाब लगाएं तो सप्ताह में एकदिन शहर भर में हजारों रुपये के नींबू व मिर्च को दुकान के शटर में बांधकर टोटकेबाज बर्बाद कर देते हैं। यदि माह व साल का हिसाब लगाएं तो टोटकों में लाखों रुपये की रकम एक पूरे शहर में बर्बाद कर दी जाती है। जबकि ऐसे टोटकों को परिणाम शून्य है। नींबू व मिर्च के जरिये बर्बाद हो रही राशि की जगह गरीबों को खाना खिलाया जाता तो शायद देश का भला हो सकता।
बचपन में मैने एक व्यक्ति के घरकी चौखट पर दरबाजे पर प्याज लटका  देखा। मैने जब पूछा इससे क्या होता है, तो उसने बताया कि घर में सुख शांति रहती है। बुरी आत्मा नहीं आती। कुछ दिन बाद पता चला कि उस व्यक्ति के घर में ही चोरी हो गई। दरबाजे पर लटका प्याज उसके घर की रक्षा नहीं कर सका। एक व्यक्ति तरह-तरह के नग की अंगूठी पहनता था। नगों के बारे में वह कहता कि ये नग धन का प्रतीक है। इस नग से जीवन की रक्षा होती है। एक दिन उस व्यक्ति के सीने मे दर्द उठा। चिकित्सालय जाने पर डॉक्टर ने उसे स्ट्रेचर पर लिटाया, तभी उसने दम तोड़ दिया। उसका नग भी उसे नहीं बचा सका। कई बार मोहले के चौराहे पर कपड़ा, नारियल, व अन्य टोटके का सामान मुझे नजर आता है। पैसों की बर्बादी कर टोटकेबाज अपनी व परिवार की किस्मत बदलने के लिए ऐसी हरकत करते हैं। मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने से किसी की किस्मत बदल जाएगी।
टोटका अपनाओ और पढ़ाई न करो, क्या छात्र परीक्षा पास कर सकेंगे। तैयारी न करो तो इंटरव्यू कैसे पास करोगे। दुकान में सामान की वेरायटी न रखो, टोटका आजमाओ, ग्राहक को संतुष्ट न करो, तो शायद ग्राहक भी दुकान में नहीं फटकेगा। फिर भी टोटके वालों की अपनी दुनियां है, अपना विश्वास है, जो अंधा है। टोटका आजमाओ, अभ्यास न करो और मैच जीतकर दिखाओ, काम न करो और कमाई कर दिखाओ, पढ़ाई न करो और परीक्षा पास कर दिखाओ। जंत्र व मंत्र की अंगूठी पहनो, फिर बीमार होने पर डॉक्टर के पास न जाओ, तब जानो। शायद ही किसी का भला ऐसा टोटका करेगा। फिर भी टोटके वालों के तर्क हैं। उनके पास इसके फायदों की लंबी लिस्ट है। तभी तो इस विज्ञान युग में टोटके भी अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं।
भानु बंगवाल